शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

खुशनसीब ...चोकी लामा !

अपने नसीब पर इतरा रहा है चोकी लामा ! भला हो बहिन सुशीला जी का जिन्होंने हम जैसे बदनसीबों को इतनी ठंडी में टैंट की ओट मुहया करवा दी.ठाठ से अपने जूते सर के नीचे दबा कर रात भर सोने के प्रयास में मशगूल रहते हैं '.तकिये का तकिया हिफाज़त की हिफाजत ' ग़ालिब मियां भी क्या खूब फरमा गए ' मौत का एक दिन मुययन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती. अमां मौत आए हमारे दुश्मनों को हम तो जो काम शीला जी ने सौंपा है उसे पूरा किये बिना नहीं जाने वाले.
जज साहेब के झटके से जागी है शीलाजी की एम् सी डी !, यह बात अलग है इतनी ठंडी में एम् सी डी के जागते जागते २५०' चोकी लामाज ' हमेशा हमेशा के लिए 'ठंडाकाल' की गोद में समां गए.
दिल्ली एक बड़े जलवे के आयोजन में मशरूफ है. कामन वेल्थ गेम्स की तैय्यारी में कलमाड़ी के साथ साथ शीलाजी की मुस्कान और मनमोहनजी की शान भी दाव पर लगी है. कलमाड़ी जी जितना मांगते हैं मिल जाता है. मांग १.६ बिलियन यू. एस . डालर को पार किये जा रही है. निर्माण कार्य दिन रात चल रहा है. निर्माण समय पर पूरा हो जाएगा -कलमाड़ी जी लाख आश्वासन दें ,ये मिडिया वाले कमबख्त मानते ही नहीं !अरे भई -लाखों चोकी लामा लगे हैं काम पर... भले लोग हैं ..मेहनती हैं.. पापी पेट की खातिर ही सही समय रहते काम तो पूरा करके ही छोडेंगे .
अब मिडिया लाख अफवाहें फैलाए कि खेल गाँव के निर्माण में लगे डेढ़ लाख मजदूर बिना मूल भूत सुविधाओं के यमुना किनारे मर खप रहे हैं . अब सरकार ने तो ठेका दे दिया ! ठेकेदार की लेबर का भी ठेका सरकार ने लिया है क्या ! इनकी तो आदत है बेमतलब की हाय तौबा मचाने की . १९८२ में पिछले खेले ! वाही एशियन गेम्स ...के वक्त भी इन्होने ऐसी ही गैर ज़रूरी अफवाहें फैलाए थीं ..ना मालूम कितने कागद काले किये थे . बेचारे मजबूर हैं अपनी आदत से..तब भी लाखों मजदूर आये थे' खेल गाँव ' बनाने . गाँव बनाते बनाते यमुना किनारे झोंपड़े बना कर खुद भी बस गए. आखिर बेचारी बेबस सरकार को बुलडोज़र चला कर इन्हें गिराना पड़ा...अतिक्रमण जो ठेहरा...फिर देश की राजधानी दिल्ली के सौन्दर्य का भी तो सवाल है.
अब ये चोकी लामा फिर से सराए को घर मान कर पसारेंगे ..तो शीलाजी ने बुलडोज़रों की क्या आरती उतारनी है.?

शनिवार, 23 जनवरी 2010

ग्लानी- मनमोहन के नान स्टेट खिलाड़ी.

पाक खिलाडी खेल की मंडी में नहीं बिक पाए तो ग्लानी जी बुरा मान गए और झट से ब्यान दाग डाला कि अब हम भी अपने नान स्टेट एक्टर्स को अपनी मनमानी करने से नहीं रोक पाएंगे। और इंडिया का सिकुलर प्रेस भी शर्म से पानी पानी हो बर्फ कि माफिक जमा जा रहा है।
अब मनमोहन जी ग्लानी को बार बार अपने इन ख़ूनी खिलाडिओं पर लगाम कसने कि गुज़ारिश करते आए हैं तो सिंह साहेब को भी तो अपने इन आइ. पि. एल. के नान स्टेट एक्टर्स को समझाना चाहिए कि 'भई एक आध खरीद डालो '। अब ये ठहरे गेंद- बल्ले के शातिर व्यापारी ..घाटे का सौदा कैसे कर लें । खुदा ना खस्ता आइ. पी. एल. मैचो के बीच ग्लानी जी के नान स्टेट एक्टर २६/११ जैसा कोई और घिनौना खेल खेल बैठे और भोले भले भारतीय दर्शक बुरा मान गए.... और पाक खिलाडिओं पर बिफर गए ... तो उनका तो करोड़ों का धंधा चौपट हो जायेगा । उनकी खून पसीने कि कमाई है....
वे मनमोहन सरकार तो नहीं जो ग्लानी के नान स्टेट एक्टर्स के रख रखाव पर ही ३३ करोड़ लुटा दें ।' अतिथि देवो भव ' ऐसी भी क्या मेहमान नवाजी सवा साल से ग्लानी के नान स्टेट एक्टर्स के ९ ताबूत सम्हाले बैठे हैं।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

गरीबी के बाद अब झोंपड़ी हटाओ अभियान

सम्राट चन्द्रगुप्त के प्रधान मंत्री का निवास शहर के बाहर पर्णकुटी में देख चीन के यात्री फाह्यान ने जब चाणक्य से कारन पूछा तो चाणक्य का उत्तर था- जहाँ प्रधान मंत्री कुटिया में रहता है वहां के निवासी भव्य भवनों में रहते हैं और जिस देश का प्रधान मंत्री राज प्रासादों में रहता है वहां की जनता झोंपड़ों में रहती है ;चाणक्य के अनुसार आदर्श राज्य संस्था वह है जिसकी योजनाये प्रजा को उसके भूमि, धन धन्यादी पाते रहने के मूलाधिकार से वंचित कर देने वाली ना हों . उसे लम्बी चौड़ी योजनाओं के नाम से कर भार से आक्रान्त ना कर डाले. चाणक्य की नीति की उपेक्षा कर आज के स्वार्थी, लोभी और देश द्रोही राज नेताओं ने अपने लिए विशाल महल खड़े कर लिए और देश की ७८% आबादी २०/- से भी कम पर गुज़र बसर करने को मजबूर है.
खाद्य मंत्रीजी की कोप कृपा से आज महंगाई ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं : देश के प्रितिनिधियों की हिमाकत तो देखो . गरीब को रोटी २ रुपये और दाल या सब्जी की प्लेट १० रुपये में जब की संसद की कैंटीन में रोटी ५० पैसे और दाल -सब्जी की प्लेट ५/- में मिल रही है. भूखी जनता को सस्ते दामों पर खाद्य पदार्थ मुहैया करवाने की जिमेइवारी है जिस मंत्री की, वह अपने सम्बन्धियो को लाभ पहुचने की चिंता में नित नए नए बयान दाग रहा है और महंगाई नई नई बुलंदियों को छू रही है.
आज़ादी के बाद ऐसे नेताओं की जनविरोधी नीतिओं और निरंतर भ्रष्टाचार के कारण आज देश के ६०० नगरों की १५% आबादी झुग्गी झोपड़ों में में नारकीय जीवन जीने को मजबूर है. इनमें भी सबसे बुरा हाल इस ' चिंदी चोर 'नेता के प्रदेश महाराष्ट्र का है जहाँ २५% लोग झुग्गी झोपड़ों में कीड़े मकौड़ो सा जीवन जीते हैं.इसी प्रकार आंध्र में १४%, प; बंगाल में १०%,यू;पी ; में ९% और ऍम पी व् दिल्ली में ५-५% .मुंबई में १६४ लाख की आबादी में झुग्गी वासिओं की फौज ५४ लाख को पार कर गई है. दिल्ली की १२९ लाख की आबादी में यह संख्या २० लाख है, कोलकत्ता की १३२ लाख की आबादी में १५ लाख ,चेन्नई की ६६ लाख में ८ लाख जबकि नागपुर और फरीदाबाद की क्रमश २१ और ११ लाख की आबादी पर झुग्गी बाशिंदों की संख्या ७ और ५ लाख है. आज़ादी के ६२ साल बाद भी सरकार अभी नित नई नई योजनाये बना कर ' इंदिरा जी के गरीबी हटाओ के नारों' की याद ताज़ा की जा रही है. नई योजना में गरीबी की तरहां ही २०३० तक सभी झोपड़ों को भी हटा दिया जाएगा . ज़ाहिर है पुरानी योजनाओं की तरहां इस नई योजना का पैसा भी भ्रष्ट नेताओं, अफसरों की तिज़ोरिओं की शोभा बढ़ाएगा और फिर स्विस बैंकों में पहुँच जाएगा., जो अब ७० लाख करोड़ है फिर कुछ लाख करोड़ और बढ़ जाएगा. .... अरे जो इस कड़ाके की सर्दी में फुटपाथों पर तड़प रहे हैं उनके नाम कोई योजना के बारे अभी सोचा ही नहीं गया...नयी कमाई की योजना पर अभी काबिना की बैठक बुलाई जाएगी. ...अगली सर्दी का इंतज़ार करिए भई......

बुधवार, 20 जनवरी 2010

युवराज इन की भी सुध लो....

युव राज इन की भी सुध ले लो......... दूर दराज़ गाँव में हरिजन बस्तिओं में नंगे बच्चों को गोदी में उठाये जब आप की मनोहारी सूरत देश के बड़े समाचार पत्रों में या फिर एन दी टी वि जैसे चेन्नलों पर देखता हूँ तो तो मन बाग़ बाग़ हो उठता है. याकीन नहीं होता की महात्मन गाँधी का पुनर्जनम हुई गवा.....यह गुर जरूर दिग्गी भैया ..वाही कांग्रस के चाणक्य ..ने सिखाया होगा. भारत का भावी प्रधान मंत्री तराशने का भागीरथ कार्य उन्हेही सौंपा गया है. दिग्गी भैया से पूछ कर युवराज कभी दिल्ली भ्रमण को भी निकलो .. वेह भी रात को ..यहाँ भी हजारों बच्चे ,बूढ़े ,औरतें सड़क के किनारे फुटपाथ पर पड़ी हैं वेह भी इस कड़क कडाती ठण्ड में .... आप अपनी फोटो देखने को ही सही बड़े अखबार तो देखते ही होंगे. हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार को फटकार लगाई है ..एम् सी डी के उस हलफनामे पर जिसमें इन फुट पाथिओं के लिए ६० लाख में २७ रैनबसेरे बनाने में अपनी मजबूरी जताई ही...दिल्ली में ऐसे १४० रैन बसेरों की दरकार है.
अरे इस लोकतान्त्रिक सरकार से तो वे रजवाड़े ही इन गरीब लोगों के प्रति अधिक संवेदनशील थे जिन्होंने अपने राज्य में सभी साहूकारों को निर्देश दे रखे थे की सर्दी में अपनी हवेली के अहाते में अलाव जलाएं ताकि रात को उस क्षेत्र के बेसहारा गरीब भीषण शीत से राहत पा सकें. हर शहर, कसबे और गाँव में रैनबसेरे और धरम शालाए उन रजवाड़ों की ही देन हैं. और एक आप की यह दिल्ली सरकार है जो इन रैनबसेरों को उजाड़ने में व्यस्त है...ताकि खेलों के लिए इसे सुन्दर बनाया जा सके ....अरे फुटपाथों पर हजारों लोग इस ठंडी में कांपते हुए जब विदेशी मेहमान देखेंगे तो क्या सोचेंगे.!
इनके लिए ना सही अपनी नाक की खातिर ही सही इन्हें खेलो तक ही सही रैनबसेरों में छुपा दो. ....युवराज इनकी भी सुध लो ...गरीबों की दुआएं ले लो...राम भली करेंगे ....

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

धरा- दिनकर का लुका छिपी महोत्सव ......

उतरायण के प्रथम दिवस आज दिनकर धरा संग लुक्का छिप्पी का खेल खेलेंगे .....
अनादी काल से एक पैर पर गोलाकार नृत्य में निमग्न धरा अपने प्रियतम की परिक्रमा में तल्लीन है और दिनकर भी निरंतर निहारते हुए अपनी उर्जा की पुष्प वर्षा कर उसे अक्खंड सौभाग्यवती भव की मंगल आशीष से आनंदित कर रहे हैं . भ्रमांड के इन प्रथम प्रेमिओं के सृष्टि सम्भोग का आज महोत्सव है. उत्सव का शुभारम्भ प्रात : ९.३५ और समापन सांय ३.३८ पर निश्चित हुआ और चाँद ने मंच संचालन का जिम्मा संभाल लिया है. धरा ने आँखें बंद कर लीं और दिनकर ने छुपने का स्थान ढूंढने की कवायत शुरू कर दी...... लो दिनकर छुप गए और धरा दबे पाँव अपने प्रियतम को ढून्ढ रही है. ...चाँद चुप चाप इस खेल को निहार ..ठंडी आहें भर रहा है. मानो तीनों आज सदिओं के बाद इतनी लम्बी छुट्टी पर पिकनिक माना रहे हैं ..पिछले कई दिनों से सूर्या देव इस उत्सव की तैयारी में लगे थे बादलों की ओट में छुपने का अभ्यास कर रहे थे और धरा उनके इस छुपा छुपी के खेल से पानी पानी हो पिंघल कर जमी जा रही थी .
वैज्ञानिक विशाल काय दूरबीनों से इस महापर्व को निहार रहे हैं और इस महा सृष्टि सम्भोग से पैदा होने वाली उथल पुथल की विवेचना में लगे हैं और हम लोग अपने परलोक की चिंता में ग्रस्त प्रदूषित-पवित्र ठन्डे जल की डुबकियां लगाने में व्यस्त हैं .....हम तो भई इतनी ठंडी में 'पंच-स्नान ' से ही संतुष्ट हैं .

शनिवार, 9 जनवरी 2010

नीम हकीम खतरा- ए-जान !

भारत कि प्राचीन चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद विज्ञानं लम्बे समय से मूर्छित अवस्था में किसी सुखेन वैद्य वैद्य की बाट जोह रही है. संजीवनी बूटी आज भी एक पहेली बनी हुई है. ना तो कोई सुखेन वैद्य दिखाई देता है जो संजीवनी से चिरकालीन मूर्छित इस प्राचीन विज्ञानं के उपचार का दावा करे और ना ही पवन पुत्र हनुमान, जो इसे पहाड़ सहित उठा लाएं. कभी कभी बाबा राम देव जैसा कोई मनीषी संजीवनी की पहचान का दावा तो करता है, किन्तु साथ ही अनेक विरोधी स्वर इस दावे की हवा निकलने में मुखरित हो उठते हैं.
वैद्य बंधुओं को अनेक बार यह प्रलाप करते सुना है कि फिरंगियो और उनसे पूर्व विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा इस प्राचीन विज्ञानं कि निरंतर उपेक्षा के कारन आज इसकी यह दुर्गति हुई है. पहले एक हज़ार साल तक मुगलों ने इसकी उपेक्षा कि तो फिर अंग्रेजों ने दो सौ साल केवल ऐलोपथिक चिकित्सा प्रणाली को बढ़ावा दिया. आज़ादी के बाद बहुत से दावे किये गए कि इंडिया में उपेक्षित इस पद्धति का अब भारत में प्राचीन गौरव लौट आयेगा. आज़ादी के ६३ वर्ष बीतने के बाद भी उपेक्षा कि यह मूर्छा टूटने का नाम नहीं ले रही. आयुर्वेद के उत्थान के लिए केंद्र सरकार द्वारा नित नई नई योजनाएँ बनाई और बिगाड़ी जा रही हैं करोड़ों रूपया पानी कि तरहं बहाया जा रहा है किन्तु स्थिति जस कि तस बनी हुई है.
गुरु शिष्य प्रणाली कि नीव पर उसारी गई यह प्राचीन साइंस, आज़ादी के बाद दो खेमों में बाँट गई. एक गुट तो उन वैद्य बंधुओं का है जो सिद्धा अर्थात शुद्ध आयुर्वेद में विशवास रखता है और प्राचीन रिशिओं मुनिओं के दिखाए रास्ते पर चलते हुए इसे फिर से उसी मुकाम पर स्थापित करने के लिए कटिबद्ध है. दूसरा गुट उन आयुर्वेदिक डाक्टरों का है जो माडर्न एलोपैथिक साइंस से प्रभावित है और आयुर्वेद के साथ साथ एलोपैथिक प्रक्टिस का पक्षधर है. सिद्धा और माडर्न कि खींच तान मैं आयुर्वेद आज कहीं का नहीं रहा. 'ना खुदा ही मिला, ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे.' . नित नए नए प्रयोग जारी हैं. १९७३ में सेंट्रल कौंसिल ऑफ़ इंडियन मेडिसिन ने सारे देश में आयुर्वेदिक शिक्षा को एक ही पैटर्न पर लाने का बीड़ा उठाया. देश के सभी आयुर्वेदिक कालेजों में एक सामान पाठ्यक्रम और प्रवेश योग्यता निर्धारित की गई. डिगरी कोर्स के लिए प्रवेश योग्यता इंटर संस्कृत विषय के साथ और साथ में साइंस को प्राथमिकता राखी गई. अब संस्कृत और साइंस का कोई सुमेल ही नहीं , तो कालेजों को योग्य छात्र मिलाने ही मुश्किल हो गए . धीरे धीरे संस्कृत की अनिवार्यता हटा दी गई. ८० का दशक आते आते आयुर्वेदिक कालेजों में पी एम् टी टेस्ट को प्रवेश का आधार बना दिया गया. मेडिकल और डेंटल कालेजों में दाखिले के बाद जो छात्र बच जाते उन्हें आयुर्वेदिक कालेजों में दाखिला मिल जाता है.
यहीं से आयुर्वेद का नए सिरे से अधोपतन का सूत्रपात हुआ.पी एम् टी पास अधिकाँश छात्रों का हिंदी ज्ञान नगण्य है. बहुतों ने तो मिडल स्तर की हिंदी भी नहीं पढ़ी - संस्कृत की तो बात ही छोडिये. अब आयुर्वेद का सारा पाठ्यक्रम हिंदी और संस्कृत में है. जिन विद्यार्थिओं ने कभी हिंदी-संस्कृत पढ़ी ही नहीं वे कैसे चल पाएंगे . इसकी चिंता भी किसी को नहीं क्योंकि अध्यापकों को तो केवल यु जी सी ग्रेड से मतलब है. और यह ग्रेड तब मिलेंगे जब आयुर्वेद को ऐलोपथी का समकक्ष माना जायेगा. और इसके लिए सामान प्रवेश योग्यता होना लाज़मी है. रही विद्यार्थिओं की उन्हें तो डिगरी से मतलब है. ताकि अलोपथिक प्रक्टिस कर सकें . आयुर्वेदिक पढ़ने के लिए तो उन्होंने दाखिला लिया ही नहीं. अचरज की बात तो यह है की इन विद्यार्थिओं को आयुर्वेदिक कालेजों में कोई भी अलोपथिक साइंस नहीं पढाता - बस डाक्टर बनने के लिए यह मात्र एक चोर दरवाज़ा बन कर रह गया है. 'नीम हकीम खतरा -ए- जान '.
७० के दशक में पंजाब में केवल २ ही कालेज थे जहाँ आयुर्वेदाचार्य -बी ए एम् एस की डिग्रीयां मिलती थी. आज इन कालेजों की संख्या बढ़ कर एक दर्ज़न हो गई है. जहाँ एलोपेथिक प्रक्टिस के इच्छुक छात्रों को आयुर्वेदिक डिग्रीयां प्रदान की जाती हैं
संयुक्त प्रणाली के पक्षधर आयुर्वेदिक डाक्टर अक्सर शुद्ध पद्धति के हिमायती वैद्यों पर यह दोषारोपण करते रहे हैं की वे विद्यापीठों से गुरुशिष्य प्रणाली द्वारा कुवैद्य किस्म के अयुर्वेदिस्ट पैदा कर रहे हैं अब इन कालेजों से निकले ये आयुर्वेदिक मेडिकल अफसर तो खुद को वैद्य कहलाना भी अपमान समझाते हैं. क्योंकि अलोपथिक दवाई से उपचार को ही इन्होने अपना 'पवित्र' व्यवसाय मान लिया है.