शुक्रवार, 18 मार्च 2011

अमेरिकी - दियत ... पाक की नियत.


अमेरिकी - दियत ... पाक की नियत...
           एल.आर.गान्धी 
अमेरिकी नागरिक की रिहाई को लेकर अमेरिका और पाक में चल रहे शीत युद्ध का ' इस्लामिक न्याय ' के अनुसार आखिर हल निकाल ही लिया गया. रेमंड डेविस ने जनवरी माह में दो सशत्र पाक नागरिकों को अपनी गोली का निशाना बनाया और पाकिस्तानियों की हत्या को लेकर पाक अवाम में जहाँ एक ओर भारी रोष था तो दूसरी ओर कट्टरपंथी मुल्लाओं के दवाब में सरकार और न्यायालय भी दुविधा   में थे. अमेरिका ने पाक का दाना पानी बंद करने की भी चेतावनी दे डाली पर अदालत ने रेमंड को कोई रियायत नहीं दी और अमेरिकी कातिल लाहोर की कोट लखपत जेल में डाल दिया गया. रेमंड को राजनयिक संरक्षण न दे पाने के 'जुर्म' में विदेश मंत्री को भी अपना पद  गंवाना पड़ा . पाक सरकार की हालत 'सांप के मुंह में कोहड किरली ' जैसी हो गई - न तो अमेरिका को नाराज करने की जुर्रत और न आवाम को खफा करने का दम !!! करे तो क्या करे ?
आखिर सरकार में बैठे अमेरिका परस्त चंद मज़हबी जानकारों ने कुछ ऐसा हल खोज ही लिया कि सांप भी मर जाए और लाठी भी रहे सलामत !
निर्धारित योजना के तहत ५ मार्च को २ अमेरिकी विशेषज्ञ पाक आए और इस्लाम की शरियत कानून के अंतर्गत मरने वालों के परिवारों को 'दियत' की भारी भरकम राशी दे कर अदालत के बाहर ही समझौते  पर दस्तखत करवा कर रेमंड को छुड़ा लिया. आवाम और इस्लाम के ठेकेदार मुल्ला देखते ही रह गए. मृतकों के परिवार वालों को जब ७ लाख डालर बोले तो ३.५ करोड़ रूपए दिखाए गए और वह भी मज़हबी क़ानून में मान्य दियत के हवाले से तो उनके होश फाख्ता  हो गए - अरे इतना देना था तो २ क्यों मारे चार मार देते ? फिरंगियों की फराख दिली तो देखो - परिवार के सभी दस सदस्यों को अमेरिका में रिहायश और नागरिकता की पेशकश. पाक सरकार ने भी सुख की सांस ली. ले भी क्यों न जो सरकार एक निवाले के बाद दूसरे के लिए अमेरिका का मूंह ताकती हो ,उसके पास और चारा भी क्या था. वैसे भी पाक में कत्ल के ६०% मामलों में शरिया के कानून 'दियत'के तहत मृतक के परिजनों को कुछ ले-दे कर मामला  निपटा लिया जाता है.शरियत के इस कानून का पैसे वाले और रसूक दार लोग खूब फायदा लेते हैं. पिनल कोड और शरियत कानून पाक में साथ् साथ् चलते हैं -रसुक दार लोग अपनी सुविधा के अनुसार चुन लेते हैं.   
अब शरियत के जानकार मुल्ला-मौलवी कितना ही शोर डालें की भई 'शरियत में दियत पर तो सिर्फ मुसलिमों का अधिकार है' दिम्मिओं का हरगिज़ नहीं . शरियत में दियत कानून के अनुसार एक मुस्लिम से यदि किसी शख्स का क़त्ल हो जाए तो अदालत से बाहर मृतक  के परिजनों को 'दियत ' मुआवज़े की राशी दे कर समझौता किया जा सकता है. शरियत के क़ानून में तो 'इंसान की कीमत' भी निश्चित कर दी गई है. जिन मुस्लिम देशों में इस्लाम का राज है और शरियत का क़ानून - वहां क़त्ल के बाद ले - दे कर मामले को रफा दफा कर लिया जाता है. विश्व के सबसे बड़े इस्लामिक निजाम सउदी अरब में तो 'दियत ' की बाकायदा रकम निर्धारित है.  मृतक यदि मुस्लिम है तो दियत राशी एक लाख रियात और यदि मुस्लिम महिला है तो इस से आधी. यहूदी मृतक मर्द के परिवार को ५० हजार रियात और यहूदी महिला को आधी . इस्लाम की नज़र में 'हिन्दू' अव्वल दर्जे के काफ़िर हैं. तभी तो एक हिन्दू मर्द मृतक के परिजनों को ६६६६ रियात की 'दियत' निश्चित की गई है और हिन्दू औरत को तो इससे भी आधी अर्थात ३३३३ रियात... साउदी अरब में काम कर रहे लाखों हिन्दु कफ़िरों के मनावाधिकारों का तो अल्लाह ही रखवाला है ...........मोहब माने जाने वाले 'बहाई' समुदाए को दियत का हक भी नहीं प्राप्त - बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाए द्वारा इन्हें जी भर कर सताया जाता है. शायद अल्लाह  का यहि हुक्म है. 
अब यदि अमेरिका ने इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान में 'कुरआन ए पाक ' के शरिया क़ानून के अन्तर्गत एक मोटी रकम दे कर एक 'दिम्मी' काफिर को रिहा कारवा लिया तो क्या आफत आ गइ. फिर पाक वैसे भी तो अमेरिका के टुकड़ों पर ही पल रहा है. इसके साथ ही अब यदि अमेरिका में किसी सिर फिरे ने रेमंड डेविस को आधार बना कर 'कत्ल' के बाद 'दियत' अदा कर मृतक के परिजनों से कोर्ट के बाहर ही मामला निपटा लिया तो 'विश्व बास ' क्या करेगा ?
तुलसी जी ने ठीक ही तो कहाँ है ' सामर्थ को नहीं दोष गुसईं '.......