बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

धृतराष्ट्र के उत्तराधिकारी


धृतराष्ट्र के उत्तराधिकारी

   एल आर गाँधी

आज हस्तिनापुर उदास है ...उदास है गंगा पुत्र भीष्म  के लिए ..भीष्म की हस्तिनापुर के  प्रति समर्पित प्रतिज्ञाओं के लिए ...धर्म युद्ध में गंगा पुत्र के अधर्म का साथ देने के लिए ... बाण - शय्या पर पड़े भीष्म भी उदास हैं ..अपनी उन प्रतिज्ञाओं के लिए जो उन्होंने भारतवर्ष की मूल अवधारनाओं के विपरीत मात्र हस्तिनापुर के सिंहासन पर आरूढ़ अंधे .... धृतराष्ट्र  के प्रति लीं और ' भरत ' के प्रजापालक सिधान्तों को भुला दिया ...
पितामहा के समक्ष सम्राट 'भरत ' मानो प्रकट रूप में पूछ रहे हों ... पितामहा यदि आप ने धर्म का साथ दिया होता और राष्ट्र प्रेम को अपने राज प्रेम से प्राथमिकता दी होती तो आज मेरे भारतवर्ष की यह दुर्गति कदापि न हुई होती ....अपने राष्ट्र प्रेम के कारन ही तो मैंने अपने नौं पुत्रो में से किसी को भी राष्ट्र के प्रजाजन के हित में अपना उत्तराधिकारी मनोनीत नहीं किया ...प्रचलित प्रथा के  अंतर्गत , अपने जयेष्ट पुत्र को राज सिंहासन पर बिठाने के निर्णय ने जब मेरी बुद्धि  और मन में अंतर्द्वंध मचाया तो मैं महर्षि कन्व के आश्रय में गया उन्होंने मेरे मन और बुद्धि के द्वंध का निराकरण किया ...तब मुझे ज्ञान हुआ की कोई भी राजा अपनी प्रजा और राष्ट्र  से बड़ा नहीं होता ...राजा का  धर्म है अपनी प्रजा की रक्षा करना और ऐसे समर्थ पुरुष को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करे जो अपने राष्ट्र और प्रजा के साथ न्याय करे और उनकी रक्षा करे .... मैंने राष्ट्र हित में अपने पुत्रों का मोह त्याग कर भारद्वाज पुत्र युद्धमन्यु को अपना उत्तराधिकारी चुन लिया ....मेरा चुनाव उचित सिद्ध हुआ ...धरम् युद्ध में युद्धमन्यु  ने धरम का साथ दिया और पांडवों की विजय में महत्त्वपूर्ण योगदान  भी दिया ......

हस्तिनापुर पुन: आज राष्ट्र प्रेम और राज भक्ति के दोराहे पर खड़ा है ....असंख्य राष्ट्र भक्तों की महान कुर्बानियों के उपरान्त जब देश आजाद हुआ तो हमारे संविधान्वेताओं ने आज़ाद देश को भारत के प्रथम जनतंत्र जनक 'सम्राट भरत 'के नाम पर भारतवर्ष नाम दिया ...संविधान के प्रथम पृष्ट पर 'इण्डिया दैट इज भारत 'इस का प्रमाण है. वैसे तो आजादी के तुरंत बाद ही भरत की योग्य उत्तराधिकारी के चयन की विचारधारा को 'तिलांजलि दे दी गई ,जब बहुमत की अवहेलना करते हुए गाँधी जी की पसंद को राष्ट्र का उत्तराधिकारी बना दिया गया ....तभी से देश  पर  ' धृतराष्ट्र वादी ' अंधी उत्तराधिकार प्रथा छाई है. राष्ट्र की प्रजा को केंद्र में ही नहीं अब तो अधिकाँश राज्यों में भी 'परिवार' से अपना 'उत्तराधिकारी' चुनने का एक मात्र विकल्प उपलब्ध है. केंद्र में यदि गाँधी का दिया एक परिवार 'राज्भाक्तो' की आस्था का केंद्र है तो राज्यों में अपने -अपने परिवारों की ताजपोशी में राजभक्तों के 'गिरोह ' सक्रीय हैं . मकसद भी सभी का एक ही है ...अपने 'आका' को सत्ता में बनाए रखना और देश की जनता और संसाधनों को दोनों हाथों से खूब लूटना ....जिस प्रकार आज़ादी से पहले रियासती रजवाड़े अपनी- अपनी सत्ता के नशे में चूर दिल्ली -दरबार को चुनौती देने से नहीं चूकते  थे ...आज लगभग  वही  हाल क्षेत्रीय दलों के समक्ष केंद्र का है ...सत्ता पर काबिज़ धृतराष्ट्रों  को परिवार और दुर्योधन के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं देता ....... गाँधी का बोया बीज आज वट वृक्ष का रूप ले गया है ...इसकी कीमत तो राष्ट्र को और इसकी प्रजा को ही चुकानी पड़ेगी ...
भारत को फिर  से किसी 'भरत ' की तलाश है जो राष्ट्र को उपयुक्त योग्य उत्तराधिकारी  प्रदान करे ...जय भारत .