जो है सो है
एल आर गांधी
सुबह की सैर को तैयार हुए थे ! ... यका यक जिंदगी की शाम ने दस्तक दे दी ! ज़ुबान ने दिमाग़ का साथ छोड़ दिया ..... दिमाग ने दूध बोलने को कहा .... मगर जुबां ने बगावत कर दी ..... मस्ता सी गयी और 'ढूढ ' बोलने लगी दूध को ! जब से जिंदगी को जीने का सलीका आया है .... तभी से मौत की उंगली पकड़ कर चलने की ज़िद दिलो -दिमाग़ पर तारी है .... जो है सो है में जीवन के परमानन्द की अनुभूति होने लगी है। कबीर जी ने ठीक ही तो कहा था ...जिस मरने से जग डरे , मेरे चित्त आनंद ! मरने से ही पाइए , पूर्ण परमानन्द !
फ़ौरन टैक्सी की और पी जी आई के ट्रामा सेंटर पहुँच गए , अपनों के यत्नो के आगे मौत को अपनी ऊँगली छुड़ा कर मेरी ऊँगली पकड़ने का विचार छोड़ना पड़ा .... ट्रामा सेंटर में सभी लोग शायद मौत जैसी सच्चाई के इतने निकट नहीं थे .... अधिकाँश मरीज़ मौत से भी बदतर जीने को जीवन मान बैठे थे ... जमीन पर लेटे स्ट्रेचर की जदोजहद में थे .... स्ट्रेचर वाले पूरे जतन से उसे वार्ड तक कब्जाए रखने में मशगूल थे ... सबसे दयनीय स्थिति ईश्वर तुल्य जूनियर डाकटरों की थी .... सभी उन्हें अपने और अंतिम क्षण के बीच का फरिश्ता मान बैठे थे।
टेस्टों से एक सच्चाई खुल कर सामने आ खड़ी हुई। सभी के दिमाग में घमंड की माफिक रक्त प्रवाहित हो रहा है .... सभी की नसों में खून के थक्के जमते हैं और पिंघल जाते हैं .... कभी कभी यह थक्का बस पिंघलता नहीं ... घम्मंडी हो जाता है .... जब फूटता है तो 'स्ट्रोक ' बन कर सुबह की सैर को शाम का स्ट्रेचर बना डालता है।
मौत की उंगली पकड़ कर चलने वाले, ' जो है सो है ' के शाश्वत सत्य के साथ मर कर भी जीते हैं !
एल आर गांधी
सुबह की सैर को तैयार हुए थे ! ... यका यक जिंदगी की शाम ने दस्तक दे दी ! ज़ुबान ने दिमाग़ का साथ छोड़ दिया ..... दिमाग ने दूध बोलने को कहा .... मगर जुबां ने बगावत कर दी ..... मस्ता सी गयी और 'ढूढ ' बोलने लगी दूध को ! जब से जिंदगी को जीने का सलीका आया है .... तभी से मौत की उंगली पकड़ कर चलने की ज़िद दिलो -दिमाग़ पर तारी है .... जो है सो है में जीवन के परमानन्द की अनुभूति होने लगी है। कबीर जी ने ठीक ही तो कहा था ...जिस मरने से जग डरे , मेरे चित्त आनंद ! मरने से ही पाइए , पूर्ण परमानन्द !
फ़ौरन टैक्सी की और पी जी आई के ट्रामा सेंटर पहुँच गए , अपनों के यत्नो के आगे मौत को अपनी ऊँगली छुड़ा कर मेरी ऊँगली पकड़ने का विचार छोड़ना पड़ा .... ट्रामा सेंटर में सभी लोग शायद मौत जैसी सच्चाई के इतने निकट नहीं थे .... अधिकाँश मरीज़ मौत से भी बदतर जीने को जीवन मान बैठे थे ... जमीन पर लेटे स्ट्रेचर की जदोजहद में थे .... स्ट्रेचर वाले पूरे जतन से उसे वार्ड तक कब्जाए रखने में मशगूल थे ... सबसे दयनीय स्थिति ईश्वर तुल्य जूनियर डाकटरों की थी .... सभी उन्हें अपने और अंतिम क्षण के बीच का फरिश्ता मान बैठे थे।
टेस्टों से एक सच्चाई खुल कर सामने आ खड़ी हुई। सभी के दिमाग में घमंड की माफिक रक्त प्रवाहित हो रहा है .... सभी की नसों में खून के थक्के जमते हैं और पिंघल जाते हैं .... कभी कभी यह थक्का बस पिंघलता नहीं ... घम्मंडी हो जाता है .... जब फूटता है तो 'स्ट्रोक ' बन कर सुबह की सैर को शाम का स्ट्रेचर बना डालता है।
मौत की उंगली पकड़ कर चलने वाले, ' जो है सो है ' के शाश्वत सत्य के साथ मर कर भी जीते हैं !