रविवार, 13 जुलाई 2014

गीता सार …अष्टावक्र

गीता सार   …अष्टावक्र 



कृष्ण का गीता का उपदेश मुख्यत : सांसारिक प्राणियों  के लिए हैं  अत: उसका महत्त्व  सबके लिए है किन्तु अष्टावक्र का उपदेश मोक्ष प्राप्ति  की इच्छा  वाले मुमुक्षुओं के लिए है इस लिए सामान्य जन इससे अप्रभावित रहा।  यह साधू-सन्यासियों ,ध्यानिओं व् अन्य साधनारत व्यक्तिओं का सच्चा मार्ग-दर्शक है।  अष्टावक्र कृष्ण के जैसी अनेक विधियां नहीं बताते।   वे एक ही बोध की विधि बताते हैं जो अनूठी , भावातीत , समय , देश और काल की सीमा के परे  पूर्ण वैज्ञानिक है।  बिना लॉग - लपेट के , बिना किसी कथा व् उदाहरण के , बिना प्रमाणों व् तर्कों के दिया गया यह शुद्धतम गणित जैसा वक्तव्य है जैसा आज तक आध्यात्म - जगत  में नहीं दिया गया।  यह आध्यात्म की एक ऐसी धरोहर है जिसके बारे में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाना है।  यह समझने के लिए नहीं पीने व् पचाने के लिए है।  जो समझने का प्रयास करेगा वह निश्चित ही चूक जायेगा।  सागर को चम्मच से नापने के समान होगा।  
भारतीय अध्यात्म स्वर्ग को भी वासना ही मानता है अत: यह भी जीवात्मा की सर्वोपरि स्थिति नहीं है।  यह स्वर्ग भी बंधन है।  इससे ऊपर की स्थिति मुक्ति की है जिसमें वह सम्पूर्ण भोगों एवं विषय - वासनाओं से मुक्त होकर अपनी स्वतंत्र  स्तिथि का अनुभव करता है।    इसके लिए पहली शर्त वैराग्य है। इस से ही प्राप्त होता है ज्ञान व् ज्ञान से मुक्ति।  यही अष्टावक्र का उपदेश  व् गीता सार है।