बुधवार, 30 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 

आज सामान्य मनुष्य को भी घर  में जितनी भौतिक सुविधाएँ प्राप्त हैं उतनी पांच सौ वर्ष पूर्व किसी संपन्न व्यक्ति को भी प्राप्त नहीं थीं।  फिर भी मानव दुःखी है. जितनी सुविधाएं बढ़ी उतना ही मानव अधिक दुखी हुआ।  आज जितनी चिकित्सा सुविधाएं बढ़ी उतनी ही बीमारियां भी बढ़ गईं , जितने  न्यायालय बढे उतने ही जुर्म भी  … भौतिक ऐश्वर्य क साथ साथ मनुष्य का नैतिक पतन अधिक हुआ , जितना ज्ञान बढ़ा उतना ही अज्ञान भी बढ़ गया।  …स्वामी रामतीर्थ ने कहा है --' To seek pleasure in worldly objects in vein , the home of bliss is within you .' सांसारिक विषयों में आनंद ढूंढना व्यर्थ है  … इस आनंद का निवास तुम्हारे भीतर है। 
अष्टावक्र जनक कहते  हैं कि यह संसार सत या असत , अच्छा है या बुरा , रस्सी है या सर्प इससे कोई प्रयोजन नहीं है।  तू संसार नहीं है , न संसारी है।  तेरे लिए भय का कोई कारण नहीं है।  तू आत्मा है , जो आत्मा परमानन्द का भी आनंद है फिर तेरे में  दुःख भय आदि कैसे व्याप्त हो सकता है।  तू ज्ञानी ही नहीं है , स्वयं ज्ञान है बोध है।  इसलिए तू सुखपूर्वक विचर।  इस आत्म ज्ञान से तेरे सारे संशय , भ्रम दूर् हो जाएंगे।  

सोमवार, 28 जुलाई 2014

अष्टावक्र

 अष्टावक्र 


" मैं एक विशुद्ध बोध हूँ " ऐसी निश्चय रुपी  अग्नि से गहन अज्ञान को जला कर तू शोकरहित हुआ सुखी हो !
अष्टावक्र केवल निषेध की बात नहीं करते कि अहंकार छोड़ दो तो ज्ञान होगा।  केवल छोड़ना ही प्राप्त करने की आवश्यक  शर्त नहीं है।  निषेध वाले धर्म केवल छोड़ने की बातें करते हैं  .... घर-बार सब छोड़ छाड़ कर जंगल में चले जाओ।  इस छोड़ने की पलायनवादी प्रवृति ने दुनिया का घोर अहित किया है।  छोड़ सब दिया किन्तु मिला कुछ भी नहीं।  
अष्टावक्र विधायक हैं।  वे कहते हैं - अहंकार छोड़ देने से , कर्तापन छोड़ देने से वह परम मिल ही जाय यह आवश्यक नहीं है।  यह सोच लेने से कि अंधकार  नहीं है , अन्धकार विलुप्त नहीं होगा।  दीप जलाने से ही दूर होगा।  
अष्टावक्र इसलिए विश्वास  दिलाते हुए कहते हैं कि आत्म ज्ञान लिए तू यह निश्चयपूर्वक मान ले कि ' मैं विशुद्ध बोधस्वरूप आत्मा हूँ। '  तो तेरा  अज्ञानरूपी अन्धकार चाहे कितना ही घना क्यों न हो एक क्षण में विलीन हो जाएगा।  ज्ञान का अस्तित्व नहीं है।  यह ज्ञान का अभाव मात्र है।  जब तक ज्ञान नहीं है , अज्ञान रहेगा।  किन्तु ज्ञान का उदय होते ही वह लुप्त हो जाएगा।  
इस ज्ञान प्राप्ति के बाद  ही मानव शोकरहित हो कर सुखी हो सकता है  ....... 

रविवार, 27 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 


मैं  कर्ता हूँ - ऐसे अहंकाररूपी विशाल काले सर्प से दंशित हुआ तू, 'मैं कर्ता नहीं हूँ' ऐसे विश्वासरूपी अमृत को पी कर सुखी हो।  
यह 'मैं' अथवा अहंकार अनंत भिखमंगा है।  इसे चाहे जितना  भी भरो यह खाली रहता है … सिकंदर जैसा विश्वविजेता भी कहता है 'मैं खाली  हाथ जा रहा हूँ।  इस दुनियां का सारा खेल अहंकार का ही है।  मनुष्य की आवश्यकताएं बहुत सिमित हैं जिन्हें आसानी से पूरा किया जा सकता  है किन्तु उसके अधिकाँश कार्य अहंकार -तृप्ति के लिए ही होते हैं।  इस अहंकार ने ही पृथ्वी को समस्त बह्मांड का केंद्र मान  , अपने को देवताओं की संतान माना ,हमारा देश महान ,हमारा धर्म महान , हमारी जाती महान, मैं महान आदि सब अहंकार की ही घोषणाएं हैं।  यह अहंकार एक रोग है जो  जीवन में सिखाया जा रहा है।  
अहंका के सिवाय जीवन में कोई बोझ नहीं , कोई तनाव नहीं है. अहंकार हमेशां चाहता ही है , देना नहीं चाहता।  देने वाला 'निरहंकारी ' हो जाता है।  जिस दिन अहंकार  गिर  गया , उस दिन यह करतापन भी गिर जाएगा व् उसी क्षण मनुष्य ईश्वर की समीपता का अनुभव करने लगेगा।  अहंकार सब कुछ कर सकता है किन्तु समर्पित नहीं हो सकता , भक्त नहीं बन सकता।  ऐसा व्यक्ति यदि कर्म योगी बन जाए तो अहंकार गिर सकता है।  
यदि अहंकार है तो नरक जाने के लिए किसी और पाप  की दरकार नहीं। अष्टावक्र केवल इस बीमारी का निदान ही नहीं करते बल्कि इलाज़ भी बताते हैं   । वह है 'मैं' से मुक्ति ! मैं करता नहीं हूँ , यह सृष्टि अपने विशिष्ट नियमों से चल यही है , परमात्मा ही एक मात्र कर्ता है।  ऐसा विश्वासपूर्वक मान लेना ही अहंकारमुक्त होने के लिए काफी है।  
वे कहते  हैं - देखो इस तरह दृष्टि मात्र्र बदलो , पूर्र्ण विश्वास  व् निष्ठापूर्वक , तो निश्चित ही परिवर्तन आ जाएगा।  बोधमात्र पर्याप्त है।  न जन्म पर तुम्हारा अधिकार है न मृत्यु पर।  बीच में व्यर्र्थ ही 'कर्ता ' बन बैठे हो।  जो भी विश्वासपूर्वक इस अम्रृत को पी जाए तो सुखी हो सकता है।   

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 


अष्टावक्र कहते हैं कि यह आत्मा ही परमात्मा है व् यही दृष्टा है।  इससे भिन्न कोई दृष्टा नहीं है।  यह आत्मा मुक्त ही है , किसी बंधन में बंधी नहीं।  वे आगे जनक से कहते हैं कि  तेरा बंधन यही है कि तूं  आत्मा के अलावा दूसरे को दृष्टा देखता है।  जब दूसरा  मौजूद है तो बंधन हो ही गया।  यदि एक ही है तो कौन किसे बांधे ।  वह मुक्त ही है।  यदि ईश्वर आत्मा से  भिन्न है जो इससे बड़ा है , तभी बंधन की बात पैदा होती है कि आत्मा किसके आधीन है , गुलाम है ,उसकी सेवक है. जब दूसरा है ही नहीं तो बंधन किसका।  वह मुक्त ही है।  अत: आत्मा से भिन्न ईश्वर की सत्ता को मानना भी बंधन है।  ऐसी  आत्मा कभी मुक्त हो ही नहीं सकती।  इस लिए ईश्वर की सत्ता को आत्मा से भिन्न  मानने वाले धर्मों  में मुक्ति की धारणा नहीं पाई जाती।  वे नर्क -स्वर्ग या ईश्वर के साम्राज्य की ही बातें करते हैं।  केवल अद्वैतवादी ही मुक्ति की बात कह सके।  
स्वतंत्र होने  में बड़ा भय है , बड़ी असुरक्षा है. मनुष्य स्वभाव से ही गुलामी खोजता है ,इस लिए उसने ईश्वर  को अपना स्वामी एवं स्वयं को गुलाम मान लिया।  इसी विचारधारा ने द्वैतवादी धर्म को जन्म दिया. उपनिषद कहते हैं 'अयमात्मा ब्रह्म ''तत्वमसि' आदि।  यह अद्वैत की धारणा है।  अष्टावक अद्वैतवादी हैं. इसीलिए वे जनक से कहते हैं कि तू आत्मा है व् वही  आत्मा सबका दृष्टा   परमात्मा है।  इससे भिन्न किसी अन्य आकाश में बैठे हुए परमात्मा को दृष्टा मानना ही तेरा  बंधन है। अज्ञानी ही आत्मा से भिन्न ईश्वर को दृष्टा , कर्म फलप्रदाता एवं कर्ता मानते हैं।  ज्ञानी नहीं मानते 

बुधवार, 23 जुलाई 2014

अष्टावक्र


अष्टावक्र 


" हे विभो ! (व्यापक ) धर्म और अधर्म , सुख और दुःख  मन के हैं।  तेरे लिए नहीं हैं।  तू न कर्त्ता है , न  भोक्ता।  तू तो सर्वदा मुक्त ही हैं। "
यह आत्मा चैतन्य है, मुक्त है, असीम है , सर्वत्र है , व्यापक है।  यह किसी बंधन में बंधी ही नहीं है।  शरीर सिमित है , मन , बुद्धि सिमित हैं।  आत्मा किसी एक शरीर या मन से बंधी नहीं है।  यह सारी भिन्नता शरीरगत है, मानसिक है. आत्मगत कोई भिन्नता नहीं  है. 
इस लिए अष्टावक्र राजा जनक को  'विभो' व्यापक शब्द से अम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तू शरीर नहीं है , व्यापक आत्मा है. इस लिए तू सर्र्वदा मुक्त ही है।  यह मुक्ति तेरा स्वभाव है. इसे पाना नहीं है , यह उपलब्ध ही है ,केवल जाग कर देखना मात्र्र है।  केवल ग्राहक (रिसेप्टिव ) होकर कोई ठीक से सुन मात्र्र ले तो घटना घट जाती है - उसी क्षण जन्म जन्मों की विस्मृति टूट जाएगी , स्मरण लौट आएगा।  खोजने वाला भटक जाता है।  खोजने पर  परमात्मा  नहीं मिलता।  खोजों को छोड़कर संसार के प्रति उदासीन, वैराग्यवान हो कर विश्राम में स्थिर हो जाना ही पा लेने का मार्ग है।  

सोमवार, 21 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 



जो चैतन्य आत्मा में विश्राम कर ठहर गया वही मुक्त है।  सभी कर्म शरीर व् मन के हैं।  जो शरीर  और मन के प्रति आसक्ति रखता है उसी के कर्म बंधन का कारन बनते हैं।  आत्मा का कोई बंधन नहीं है।  वह करता है ही नहीं , द्रष्टा है।  द्रष्टा कभी कर्म बंधन में नहीं बंधता।  जो अपने  को आत्मा मानकर शरीर से  अपना सम्बन्ध छोड़ देता है वह मुक्त है।  यही अष्टावक्र का परम उपदेश है।  
अष्टावक्र कहते हैं " तूं शरीर नहीं है , आत्मा है जो चैतन्य है , साक्षी है।  आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता।  यह ब्राह्मण , क्षत्रिय ,  वैश्य , शूद्र नहीं होती।  यह तो चैतन्य ऊर्जा मात्र है जो समस्त प्रकार  के जीवों में समान रूप से व्याप्त है।  
अष्टावक्र जनक को आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराते हैं ' तू इसे जान ले और सुखी हो' . इसमें देर होती ही नहीं।  यह नकद धर्म  है।  उधार नहीं है कि आज कर्म किया और अगले जन्म में फल मिलेगा।  कुछ धर्म कहते हैं यह कलियुग है, यह पंचम काल है, इसमें मुक्ति होगी ही नहीं।  कुछ कहते हैं आज से प्रयत्न  करना आरम्भ करो तो सात जन्म बाद मुक्ति मिलेगी।  कुछ कहते हैं अंतिम तीर्थंकर , पैगम्बर , अवतार हो चुके अब कोई होने वाला नहीं है।  परन्तु अष्टावक्र बड़ी निर्भीकता से घोषणा करते हैं कि यह सब बकवास है।  तू अपने को चैतन्य में स्थिर कर ले और  अभी मुक्त हो जा।  
ऐसी घोषणा कोई भी महापुरुष , अवतार या गुरु नहीं कर पाये ।  बड़ी अद्भुत घोषणा है आध्यात्म जगत की।  दीपक जलते ही जैसे एक क्षण में अँधेरा गायब हो जाता है , उसी प्रकार आत्म-ज्ञान के प्रकाश में अज्ञानरूपी अन्धकार का एक क्षण में विलीन हो जाता है , सारी  भ्रान्ति मिट जाती है  … केवल बोध पर्याप्त है  ....  

शनिवार, 19 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 


राजा जनक   ने देश के सभी बड़े बड़े विद्वानों को बुलाकर  एक सभा का आयोजन किया  … तत्त्व ज्ञान पर शास्त्रार्थ रखा गया  .... यह भी घोषणा की गई कि जो जीतेगा उसे सींगों पर सोना मढ़ी हुई सौ गाएं दी जाएंगी।  शास्त्रार्थ में बड़े बड़े विद्वानों ने भाग  लिया अष्टावक्र के  पिता भी शामिल हुए।  अष्टावक्र को मालूम हुआ कि उनके पिता एक पंडित से हार गए और बंदीगृह में डाल  दिए गए।  बारह वर्षीय अष्टावक्र सभा में पहुंचे  …उनके टेढ़े मेढ़े शरीर को देख सभा में बैठे सभी पंडित -शास्त्री हंस पड़े।  सभासदों को हँसता देख अष्टावक्र भी हंस दिए।  राजा जनक ने अष्टावक्र को हँसता देख   पूछा  …  विद्वान क्यों हंसे , यह तो मैं समझा किन्तु तुम क्यों हँसे , यह मेरी समझ में नहीं आया।  इस पर अष्टावक्र ने कहा कि मैं इस लिए हंसा कि " इन चर्मकारों की सभा में आज सत्य का निर्णय हो रहा है।  
ये चर्मकार यहाँ क्या कर रहे हैं  .... चर्मकार शब्द सुनते ही सारी  सभा में सन्नाटा छा  गया। राजा जनक ने अष्टावक्र स पूछा कि - तेरा मतलब क्या है ? अष्टावक्र ने कहा " बहुत सीधी सी बात है कि चर्मकार केवल चमड़ी का ही पारखी होता है।  इनको मेरी चमड़ी ही दिखाई देती है जिसे देख कर ये हंस पड़े , ये चमड़ी के अच्छे पारखी हैं।  अत: ये ज्ञानी नहीं हो सकते , चर्मकार ही हो सकते।  शरीर के वक्र आदिक धर्म आत्मा के कदापि नहीं हो सकते।  अष्टावक्र के इन वचनो  को सुनकर  जनक बड़े प्रभावित हुए   .... उनके चरणों में गिर पड़े  .... उनको  सिंहासन पर बिठाया  । चरणों में बैठ कर शिष्य भाव से अपनी जिज्ञासाओं का इस बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र से   समाधान कराया  .... ' जनक-अष्टावक्र -संवाद ' रूप में 'अष्टावक्र गीता' है   

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र
 


कहते हैं विवेकानंद जब रामकृष्ण के पास गए व् परमात्माका   प्रमाण पूछा तो रामकृष्ण ने उन्हें अष्टावक्र गीता पढ़ने को दी कि तुम इसे पढ़  मुझे सुनाओ।  मेरी दृष्टि कमजोर है।  कहते हैं विवेकानंद  पुस्तक को पढ़ते पढ़ते ही ध्यानस्थ हो गए व् उनके जीवन में क्रांति घट  गई। .... 
मनुष्य भी चार प्रकार के होते हैं  - ज्ञानी , मुमुक्षु,अज्ञानी और मूढ़  . ज्ञानी वह है जिसे ज्ञान प्राप्त हो चूका है , मुमुक्षु वह है जो ज्ञान प्राप्ति के लिए    लालायित है, उसे हर कीमत पर प्राप्त करना   चाहता है।  अज्ञानी वह जिसे शास्त्रों का ज्ञान तो है किन्तु उपलब्धि के प्रति  रूचि नहीं रखता तथा मूढ़ वह है जिसे  अध्यात्म-जगत का  कुछ भी पता  नहीं है , न जानना ही चाहता है।  वह पशुओं की भांति अपनी शारीरिक क्रियाओं को पूर्ण मात्र कर  लेता है।  वह शरीर में ही जीता है।  इनमें मूढ़ से अज्ञानी श्रेष्ठ है , अज्ञानी से मुमुक्षु श्रेष्ठ है।  ज्ञानी सर्वोत्तम स्थिति में  है।  
आत्म ज्ञान के लिए  निर्विकार चित्त व् साक्षी भाव चाहिए।  महर्षि पतंजलि ने कहा है "योगश्चित्तवृतिनिरोध " (चित्त वृतियों का निरोध ही योग है ) इन चित्त की वृतियों को रोकने की भिन्न -भिन्न विधियां हैं किन्तु उच्च बोध होने  पर  इन विधियों की आवश्यकता नहीं पड़ती।  भगवान बुद्ध ने भी कहा है कि " जो समझ सकते हैं उन्हें मैंने बोध दिया है व् नासमझों को मैंने विधियां दी हैं 
राजा जनक में बोध था , विद्वान थे,समझ थी अत: अष्टावक्र ने उन्हें कोई विधियां नहीं बतायी।  सीधे बोध को छुआ व् जनक जाग  उठे।  

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 



अष्टावक्र को अल्पायु में  ही आत्म ज्ञान प्राप्त हो  गया था।   वे शरीर  के आठ  अंगों से टेढ़े -मेढ़े व् कुरूप थे  … जब वे गर्भ में थे  उस समय इनके पिता एक दिन वेद पाठ कर रहे  थे ,  तो इन्होने गर्भ से ही अपने पिता को टॉक दिया कि "रुको , यह सब बकवास है , शास्त्रों में ज्ञान कहाँ ? ज्ञान तो स्वयं के  भीतर  है।  शास्त्र शब्दों का संग्रह मात्र है। " यह सुनते ही पिता का अहंकार जाग उठा।  वे आत्म ज्ञानी तो थे नहीं , पंडित ही तो रहे होंगे।   पंडितों में ही अहंकार सर्वाधिक होता है।  इसी अहंकार के कारण वे आत्म-ज्ञान से वंचित रहते हैं।  आत्म-ज्ञान के लिए नम्रता पहली शर्त है , अहंकारी शिखर बन जाता  है जिससे ज्ञान-वृष्टि होने पर भी वह सूखा रह जाता है जबकि छोटे-मोटे गड्डे भर जाते हैं   । पिता के अहंकार पर चोट पड़ते ही वे तिलमिला गए  ।  अभी पैदा भी नहीं हुआ और मुझे उपदेश  ? तुरंत शाप  दिया कि जब तूं  पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा मेढ़ा  होगा।  ऐसा ही हुआ भी।  इसी लिए इसका नाम पड़ा  'अष्टावक्र '. …इसी लिए अष्टावक्र का ज्ञान पुस्तकों ,पंडितों व् समाज से अर्जित नहीं था बल्कि पूरा का पूरा स्वयं लेकर ही पैदा हुए थे।   

रविवार, 13 जुलाई 2014

गीता सार …अष्टावक्र

गीता सार   …अष्टावक्र 



कृष्ण का गीता का उपदेश मुख्यत : सांसारिक प्राणियों  के लिए हैं  अत: उसका महत्त्व  सबके लिए है किन्तु अष्टावक्र का उपदेश मोक्ष प्राप्ति  की इच्छा  वाले मुमुक्षुओं के लिए है इस लिए सामान्य जन इससे अप्रभावित रहा।  यह साधू-सन्यासियों ,ध्यानिओं व् अन्य साधनारत व्यक्तिओं का सच्चा मार्ग-दर्शक है।  अष्टावक्र कृष्ण के जैसी अनेक विधियां नहीं बताते।   वे एक ही बोध की विधि बताते हैं जो अनूठी , भावातीत , समय , देश और काल की सीमा के परे  पूर्ण वैज्ञानिक है।  बिना लॉग - लपेट के , बिना किसी कथा व् उदाहरण के , बिना प्रमाणों व् तर्कों के दिया गया यह शुद्धतम गणित जैसा वक्तव्य है जैसा आज तक आध्यात्म - जगत  में नहीं दिया गया।  यह आध्यात्म की एक ऐसी धरोहर है जिसके बारे में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाना है।  यह समझने के लिए नहीं पीने व् पचाने के लिए है।  जो समझने का प्रयास करेगा वह निश्चित ही चूक जायेगा।  सागर को चम्मच से नापने के समान होगा।  
भारतीय अध्यात्म स्वर्ग को भी वासना ही मानता है अत: यह भी जीवात्मा की सर्वोपरि स्थिति नहीं है।  यह स्वर्ग भी बंधन है।  इससे ऊपर की स्थिति मुक्ति की है जिसमें वह सम्पूर्ण भोगों एवं विषय - वासनाओं से मुक्त होकर अपनी स्वतंत्र  स्तिथि का अनुभव करता है।    इसके लिए पहली शर्त वैराग्य है। इस से ही प्राप्त होता है ज्ञान व् ज्ञान से मुक्ति।  यही अष्टावक्र का उपदेश  व् गीता सार है।   

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 


बहिर्मुखी को ज्ञान या बोध का मार्ग समझ में नहीं आ सकता  . विद्वान , प्रज्ञावान , प्रखर बुद्धि  एवं चेतना वाला ही इसे ग्रहण कर सकता है  . इसी कारण अष्टावक्र का उपदेश जनसामान्य में अधिक प्रचलित नहीं हो पाया  . अष्टावक्र की पूरी विधि सांख्य योग की है जिसमें करना कुछ  भी नहीं है  .
अक्रिया  ही विधि है , बोध या स्मरण मात्र पर्याप्त है  . यदि यह जान लिया कि मैं शरीर , मन आदि नहीं हूँ  ,बल्कि शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ तो सारी  भ्रांतियां मिट जाती हैं व् यही मोक्ष है  . 
मोक्ष कोई स्थान नहीं है बल्कि चित्त की एक अवस्था है जिसमें स्थित हुआ जीव परमानन्द का अनुभव करता है 



गुरुवार, 10 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 



अष्टावक्र  कहते  हैं कि मोक्ष कोई वस्तु नहीं  जिसे प्राप्त किया जाए ,  न कोई स्थान है  जहाँ पहुंचा जाए , न कोई   भोग है जिसे भोगा   जा सके , न रस है , न इसकी कोई साधना है , न सिद्धि है , न ये स्वर्ग में है , न सिद्ध शीला पर।  
विषयों में विरसता ही मोक्ष है।  
विषयों में रस आता है तो संसार है ।  
जब मन विषयों से विरस   हो  जाता है तब  ' मुक्ति '  है।  संसार में रहना , खाना पीना  कर्म करना बन्ध नहीं हैं ; इनमें अनासक्त हो जाना ही मुक्ति है।  इतना ही मोक्ष विज्ञान का सार है।  
सन्यासी बनने से,  धूनी रमाने से , संसार को गालियां देने से , शरीर को सताने से , उपवास करने से , भोजन  के साथ नीम की चटनी खाने से विषयों के प्रति विरसता नहीं आ सकती।  इन सबका मोक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं है।

(अष्टावक्र गीता १५/२) 

बुधवार, 9 जुलाई 2014

 अष्टावक्र गीता 

एल  आर  गांधी   


ज्ञानी मृत्यु के समय भी हँसता है , मूढ़ ज़िंदा रहते भी रोता है।  ज्ञानी के पास कुछ नहीं होते  भी आनंदित रहता है , अज्ञानी के पास सब कुछ होते हुए भी दुःखी रहता है।  ज्ञानी कर्म को भी खेल समझता है , अज्ञानी खेल को भी  कर्म समझता है। ज्ञानी संसार को भी नाटकवत्  समझता है किन्तु अज्ञानी नाटक और स्वपन को भी भी वास्तविकता समझता है  . ज्ञानी व् अज्ञानी के कर्मों में समानता होते हुए भी दृष्टि में अंतर है।   

(अष्टावक्र गीता ४/१)

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

आचार्य का स्वर्ग -मुल्ला की ज़न्नत … ख्याल अच्छा है


आचार्य का स्वर्ग -मुल्ला की ज़न्नत  … ख्याल अच्छा है 

                            एल आर गांधी 


अयोग्य की पूजा का उल्टा फल मिलता है   … साई पूजा से नाराज़ शंकराचार्य सवरूपानंद सरस्वती जी ने अपने नए विवादित ब्यान में  घोषणा के साथ ही कांग्रेस महानसचिव दिग्विजय सिंह उर्फ़ दिग्गी मियां जी   को अपना परम शिष्य भी सवीकार किया  ....
सवरूपानंद जी महाराज ने साईं बाबा की हिन्दुओं द्वारा पूजा पर एतराज जताते हुए बताया कि साईं में ऐसी कोई योग्यता नहीं की उसकी पूजा की जाए  … साईं मुसलमान थे कोई अवतार नहीं की उनकी मूर्ती की पूजा की जाए  … वे चिलम  पीते थे , मांस खाते  थे और एकादशी के दिन ब्राह्मणों को जबरन मांस खिलाते  थे  …
सवरूपानंद जी पहले भी अपने विवादस्पद बयानों और कांग्रेस प्रसस्त कार्यकलापों के कारण सुर्ख़ियों में  रहे हैं  … मोदी पर प्रशन पूछने पर एक पत्रकार को थप्पड़  तक जड़ दिया , बनारस में जब हर हर मोदी का जयघोष हुआ तो स्वामी जी को नागवार गुज़रा और मोदी के आगे ' हर हर ' पर फतवा जारी कर दिया  … मोदी समर्थक नहीं माने  … माने भी क्यों , अब सवरूपानंद जी ने अपने नाम के आगे 'शंकराचार्य ' लगा रक्खा है , क्या वे भगवान शंकर जी के 'आचार्य ' हो   गए  ।
शंकराचार्य जी महाराज के महान शिष्य श्री श्री दिग्विजय सिंह उर्फ़ दिग्गी मियां के 'कृत्य' और मान्यताओं पर तो  आचार्य जी ने कोई एतराज नहीं किया और आज भी उसे अपना शिष्य मानते हैं  … दिग्गी मियां की मुस्लिमपरस्ती  … ओसामा बिन लादेन के लिए 'जी' अलंकरण का प्रयोग , इस उम्र में 'मस्तुरातपरस्ती ' और न जाने क्या- क्या  …
साई पूजा को रोकने के लिए स्वामी जी ने नागा साधुओं का आह्वान किया है  … क्या इस्लामिक देशों की भांति स्वामी जी भारत में भी धार्मिक गृह युद्ध को तो आमंत्रण नहीं दे रहे।  भारत एक लोकतांत्रिक देश है और हिन्दू समाज अनंतकाल से बहुदेव पूजक रहा है   .... आचार्य तो शाश्त्रार्थ से अपने अनुयायिओं को सही मार्ग दिखाते हैं न की शस्त्रों  से  … 
आचार्य का मानना है कि साईं को मानने वालों को मोक्ष (स्वर्ग) नहीं प्राप्त होगा  … मुल्ला कहते हैं कि जेहाद करो  …जन्नत नसीब होगी  .... हमको मालूम है ज़न्नत की हकीकत या रब , दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है