शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

आप तो होम्योपैथी कि गोली हो जी ...

हम भी खुद के बारे में न मालूम कितनी गलत फहमियां पाले बैठे थे- सारी कि सारी एक दिन काफूर हो गईं ,जब यूँ ही मज़ाक मज़ाक में अपनी श्रीमतीजी से पूछ बैठे ! क्यों जी आपका हमारे बारे में क्या विचार है? थोडा सोच विचार किया और बोली.... आप तो होम्योपैथी कि गोली हैं !हम हैरान परेशान ..भई हम होम्योपैथी कि गोली कब से हो गए। झट से बोली ॥ जिसका न कोई नफा न नुक्सान ..महज़ एक मीठी गोली !
रही सही कसर अब अंग्रेजों ने पूरी कर दी। यू.के सरकार ने अपने निरंतर बढ़ रहे हेल्थ बज़ट पर लगाम कसने कि सोची तो एक चिकित्सा विशेषज्ञों का पेनल बिठा दिया। गहन जांच पड़ताल के बाद पेनल ने लोगों की सेहत के लिए होम्योपथिक को बेअसर और बेकार पाया और अनुशंसा कर डाली कि सरकार इस पैथी पर जो १०० बिलियन पौंड खर्च रही है उसे बंद कर दिया जाये। यू के सरकार अपने नागरिकों कि सेहत संभल के लिए हर वर्ष १५२,००० मिलियन पौंड खर्च करती है और उस हिसाब से १०० मिलियन पौंड तो बहुत मामूली खर्च है। फिर भी इसे बेकार का खर्च मानं कर बंद करने कि सिफारिश कर डाली।
हमारे यहाँ भी होमियोपैथी पर केंद्र सरकार ने गत वर्ष ४१ करोड़ रुपये मंज़ूर किये थे राज्य सरकारों का बज़ट तो कई गुना ज़िआदा बैठता है। हम भारतियों कि सेहत के ठेकेदारों में अब एक नई बहस छिड़ना लाज़मी है। इस वर्ष प्रणब दा ने हमारी सेहत का ख़ास ख़याल करते हुए सेहत बज़ट में इजाफा कर २२,३०० करोड़ कर दिया है जब कि गत वर्ष यह १५,५८० करोड़ था। अब यू के जैसे छोटे देश जिसकी आबादी हमारे एक प्रान्त जीतनी होगी से इस बज़ट का मिलान करें तो यह महज़ होम्योपैथी कि मीठी गोली के सामान ही लगता है।उस पर कुल सुविधा का मात्र १० % ही आम आदमी तक पहुँच पाता है बाकी तो बीच के क्वात्रोची ही गटक जाते हैं। तभी तो सयाने लोग फरमाते है 'भगवान् काले और सफ़ेद कोट 'से बचाए । वैसे भी समझदार कभी कोर्ट कचहरी और सरकारी दवाखाने के चक्कर में नहीं पडता।
अब ज्योति बाबू को ही लो,..... २३ साल बंगाल पर राज किया..... निजी क्षेत्र के घोर विरोधी ...साम्यवाद के झंडे कि खातिर सार्वजानिक संस्थान खड़े करते चले गये ...आखिरी वक्त आया तो किसी अपने खड़े किये सरकारी हस्पताल पर मन नहीं टिका ..एक निजी हस्पताल में प्राण त्यागे ।
श्रीमती जी ने कहा था॥ तो यकीन नहीं हुआ कि होम्योपथी महज़ एक मीठी गोली है। अब अँगरेज़ ने कहा है तो मानना ही पड़ेगा !

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

मन्त्र सहज मृत्यु का...

एड्स से पीड़ित पल पल मर रहे एक युवा प्रेमी कि तड़प , रे गोसलिंग से देखि न गई । नाटहिन्गम शायर पुलिस के समक्ष इस वेटरन ब्राडकास्टर ने सवीकार किया कि उसने एड्स पीड़ित युवक को सहज मृत्यु पाने में उसकी मदद की। पुलिस ने उसे हिरासत में ले लिया।
इस समाचार को पढ़ कर मेरी समृति में अपने ही एक बहुत प्रिय निकट सम्बन्धी स्वर्गीय श्री भूषण सरहिन्दी जी के अंतिम दिनों की याद ताज़ा हो गई । वे एक वेटरन जर्नलिस्ट थे। पत्रकारिता को समर्पित एक कर्मयोगी । निरंतर काम में व्यस्त बैठे रहने के कारण कमर कमान हो गई थी । किन्तु कलम की धार किसी गांडीव से छूटे तीर से कमतर नहीं ।
लगातार पड़े रहने से बेड सोल हो गए थे।पीड़ा के कारण सो भी नहीं पाते थे। एक रात मैंने उनके पावों के तलवों की खूब मालिश की । वे सो गए। सुबह उठे ..तो बोले ..रात तो सपने में मियां मुशर्रफ की इंटरवियु ली .मैंने राहत की साँस ली। इतने कष्ट में भी उनके चहरे पर अपने काम के प्रति समर्पण की चमक साफ़ देखि जा सकती थी। पत्रकारिता का ऐसा समर्पित पुरोधा अब तो बिरला ही देखने को मिलता है।
अस्पताल के कमरे में उनकी छटपटाहट को देख कर कलेजा मुंह को आता । जिनके लिए सब कुछ किया वे ही मुंह चुराते फिर रहे थे। शहर के सब से वृष्ट डाक्टर जो उनके परम मित्र भी थे ..आते और ढेर साड़ी दवाएं मुंह में उड़ेल कर चले जाते। 'दर्द बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दावा की '। ऐसे ही एक दिन डाक्टर साहेब आए तो मुझ से रहा ना गया।पूछ बैठा ..डाक्टर साहेब ..आप इनके मित्र हैं। बोले..हाँ । क्या यह ठीक हो जायेंगे ? बोले इश्वर से दुआ करो। फिर एक माह से इन्हें इतनी पीड़ा में क्यों रखा है। मैं अपनी भावनाओं पर अपना नियंत्रण खो बैठा ..भीतर की करुणा कराहने लगी॥ डाक्टर इन्हें मुक्त कर दो !डाक्टर साहेब चुप चाप कमरे से खिसक गए। मुझे उस वक्त वे एक जल्लाद की माफिक लग रहे थे, जो एक बकरे की गर्दन पर धीरे धीरे चाक़ू चला कर उसकी तड़प से बेखबर अंतिम क्षणों का इंतज़ार कर रहा हो ।
शायद हमारे शास्त्रों में वानप्रस्थ आश्रम का विधान मनुष्य के इन्हीं अंतिम दिनों के कष्ट निवारण का एक प्रयास था। वनों में सिद्ध योगिओं के आश्रमों में सात्विक कंद मूल के आहार से पाचन क्रिया सहज तो होती ही थी , साथ ही प्राणायाम के निरंतर अभ्यास से हथ योग द्वारा सहज मृत्यु को प्राप्त करने का वरद मन्त्र भी मिल ही जाता था।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

बापू के मौसेरे ........

बापू का वह रूप देख तो मैं स्तब्ध रह गया था. मेरे मन में बापू के प्रति श्रधा भाव और भी प्रबल हो गया . मैं इतरा रहा था , अपने भाग्य पर कि बापू ने भी मेरी माँ का दूध पिया है. इस प्रकार मैं भी उनका मौसेरा ही हुआ ना.
बापू के साबरमती आश्रम में हम सभी एक परिवार के समान थे. एक गाये माता और उनका बछड़ा - भीरु ! मैं और मेरी माता. बापू प्यार से गाये को माता और मेरी माँ को मौसी बुलाते थे. भीरु भैया बचपन से कुछ ढीले से रहते थे. पैदा होते पीलिया जो हो गया था उन्हें .आश्रम ढोर डाक्टर ने बहुत उपचार किया किन्तु भीरु भाई बीतते ही चले गाये. एक दिन बापू ने भीरु को असह्य दर्द से छटपटाते देखा तो 'करुणा' के आगे अहिंसा पर्मोधरम हार गया.फ़ौरन डाक्टर को
डाटा! या तो इसका दर्द हर लो या फिर इसे सहज मृत्यु दो. मुझ से इसका दर्द नहीं देखा जाता ! डाक्टर ने एक 'टीका' लगा कर भीरु को सहज मृत्यु कि गोद में सुला दिया.
बापू के आश्रम में विद्वानों और अदीबों का मजमा लगा रहता . हिन्दू समाज में व्याप्त धार्मिक और सामाजिक कुरीतिओं पर बापू अपने बेबाक विचार रखते थे. सती प्रथा, बाल विवाह ,विधवा विवाह, बहुविवाह, वेश्या - वृति,दासी प्रथा , नारी उत्पीडन और छूआ - छूत जैसी सामाजिक और धार्मिक कुरीतिओं को जड़ से उखाड़ फैंकने का संकल्प कर रखा था उन्होंने. जो देव पुरुष जानवरों में भेद भाव नहीं रखता , भला इंसानों में भेद भाव कैसे सहन करता । बापू कहा करते मैंने गीता के साथ साथ कुरआन को भी पढ़ा है और भीतर तक समझा है। फिर भी अदीबों के समक्ष तलाक-हलाला, हलाल - हराम पर 'हे राम ' का सा मौनव्रत धारण किये रहते? मेरे लिए भी यह चुप्पी ता- उम्र एक पहेली कि माफिक ही रही । आखिर मेरी माँ का दूध पी कर भी बापू यह चुप्पी क्यों साध लेते हैं। बेशक कोई न समझे हमारी ज़ुबां को पर हम ऐसे चुप तो नहीं बैठते !
फिर भी कितने महान थे बापू ! जानवर और इंसान सभी को ईश्वर अल्लाह कि संतान जो मानते । तभी तो मांसाहार को हराम घोषित कर रक्खा था और गोहत्त्य के विरुद्ध तो राष्ट्रव्यापी आन्दोलन भी छेड़ दिया। इसे कहते हैं अहिंसा के पुजारी। मुझे तो बस पूरा यकीन हो चला है कि बापू के भारत में कोई किसी को नहीं सताएगा ..एक बार बस ये मांस-ख़ोर फिरंगी रुखसत हो जाएँ । वह दिन भी आ गया और फिरंगी अपना बोरिया बिस्तर बाँध भाग खड़ा हुआ । मैं चशमदीद था बापू के उस कमाल का । मैं भी गुनगुना रहा था !

'दे दी हमें आजादी ,बिना खडग बिना ढाल ॥
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल ॥
सब लोग बाग़ बापू के इस कमाल का जश्न मनाने कि तैयारी में ही थे कि जिन्ना ने बंटवारे का बिगुल फूंक दिया। बापू ने जिन्ना को लाख समझाया भई 'मेरा अपना बेटा मुसलमान हो गया तो क्या उसकी वतन परस्ती पाक हो जाएगी' । यहाँ तक कह डाला सारा कुछ तुम्ही सम्हालो !पर जिन्ना तो जिन्ना थे नहीं माने!बापू ने आखरी पांसा फेंका ..खुदा का वास्ता दिया और बकरीद का तोहफा भी ॥ मेरी रस्सी जिन्ना के हाथ में थमा दी... और फिर से अपनी भजन मंडली में जा बैठे और गुनगुनाने लगे ।
'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम '
सबको सन्मति दे भगवान्'।
मैं कातर दृष्टि से बापू को निहार रहा था ॥ अरे इस काफिर ने तो 'हराम' गोष्ट नहीं छोड़ा ,मुझे कहाँ बख्शेगा ....सौतेला हूँ ना ..मौसी का बेटा जो ठहरा !क्या मेरा सहज मृत्यु पर कोई अधिकार नहीं ? बापू तूने मेरी माँ का भी दूध पिया है... मुझे सहज मृत्यु दे दो ..अरे मारना ही है ..तो झटक दो ..तड़पाते क्यों हो ?

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

अँगरेज़ का 'टीका'

हम लोग दुखी जीवन से त्रस्त जन्म जन्म के बंधनों से मुक्ति की आकांक्षा में निरंतर ईश्वरोपासना में व्यस्त थे. - तो अँगरेज़ कष्टकारी रोगों से मुक्त कर इसी जीवन को सहज और उन्मुक्त करने में प्रयासरत था.
. १४ मई १७९६ को यह सौभाय प्राप्त हुआ जेनर नामक एक अँगरेज़ वैज्ञानिक को जब सर्वप्रथम उसने चेचक के टीके का आविष्कार कर डाला. जेनर के टीके ने चेचक को तो नेस्तोनाबूद कर दिया किन्तु 'टीका' इंजेक्शन के अवतार में खुद समाज के समस्त रोगों की राम बाण संजीवनी बन बैठा. हर कोई 'टीका' जेब में लिए घूम रहा है.कब,कहाँ, कैसे और किसके लगाना पड़ जाए क्या मालूम ! समस्त असाध्य बिमारिओं का ही नहीं ,अब तो जटिल समस्स्याओं का भी एक मात्र उपचार है 'टीका'. नीम हाकिम ख़तरा ए जान के पास भी जब कोई आहात मरीज़ आता है, तो पहला शब्द एक ही होता है ! डाक्टर बचा लो -बस झट से कोई टीका लगा दो !
गत दिनों 'टीके' की माया देख, हम तो बस देखते ही रह गए ! हमारे एक मित्र नए नए आयुर्वेदिक डाक्टरी का कोर्स कर अपने आर.एम्.पी पिताश्री के क्लिनिक में 'दीन दुखिओं ' के उपचार में मशगूल थे, हम भी जा बैठे -चुपके से . डाक्टर साहेब स्टेथो 'गले' में लटकाए एक मरीज़ की हार्ट बीट जांच रहे थे. इसके बाद दूसरे मरीज़ की पसलिओं का मुआयना किया,और फिर एक मरीज़ की अवरुद्ध छाती छान मारी.हम हैरान परेशान ! अरे स्टेथो बिना कान में लगाये ही..
खैर ! अब डाक्टर साहेब एक महिला के तीव्र अनुरोध पर 'इमरजेंसी ट्रीटमेंट 'यानि कि 'टीका' लगा रहे थे. महिला को बैंच पर आड़ी-टेढ़ी बिठाया और लगा दिया टीका.. और वह भी साडी के ऊपर से ही - टीका तो लग गया किन्तु टिके की पिचकारी से बैंच गीला हो गया ! बाद में उपचार से संतुष्ट महिला अपनी बहिना से बतिया रही...कमाल के डाक्टर हैं जी...'टीका' लगाते है कि पता ही नहीं चलता...
यह अँगरेज़ के अंग्रेजी टीके ही का तो कमाल जी - हर हिन्दुस्तानी नागरिक 'इंडियन सिटिज़न ' हो गया . हिंदी फिल्मों का नायक फिल्म फेयर अवार्ड पा कर बाग़ बाग़ तो होता है पर 'दो शब्द' आइ लव यू इंडिया अंग्रजी में ही कह पाता है.
अब तो हमारी पत्रकार बिरादरी भी पाठकों कि सुविधा के नाम पर 'हिंगलिश' शब्दावली पर ख़ास ध्यान देते है. पिछड़ेपन का प्रतीक हो कर हो कर रह गई 'विशुद्ध हिंदी' . है न ! अंग्रेजी टीके का कमाल !

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

न क्षुधासम : शत्रु :....चाणक्य !

न क्षुधासम: शत्रु : !........चाणक्य
भूखा व्यक्ति कोई भी पाप कर सकता है. अत : सरकार का कर्त्तव्य है कि देश में कोई भी भूखा न रहे , इसके लिए कृषि के विकास के साथ सूखे तथा बाढ़ से बचाव के साथ साथ ऐसी योजनाये बनानी और कार्यान्वित करनी चाहियें जिस से प्रतीयेक नागरिक को रोजगार उपलब्ध हो. चाणक्य के अनुसार आदर्श राज तंत्र वही है जिसकी योजनायें प्रजा को उसकी आजीविका के मौलिक अधिकार से वंचित करने वाली न हों. उसे लम्बी चौड़ी योजनाओं के नाम से कर भार से आक्रान्त न कर डालें . योजनायें राजकीय व्ययों से बचत करके ही चलाई जानी चाहियें । सरकार का ग्राह्य भाग दे कर बचे प्रजा के टुकड़ों के भरोसे पर लम्बी चौड़ी योजनायें छेड़ बैठना प्रजा का उत्पीडन है।
पिछले ६३ साल से हम यही कर रहे है। नेहरूजी कि पंच वर्षीया योजनाओं पर खरबों रुपये पानी कि तरहं बहाए गए और इन योजनाओं का वास्तविक लाभ सामान्य जन तक पहुँच भी रहा है या नहीं इस पर किसी ने सोचा ही नहीं । चार दशक बाद आखिर राजिव गाँधी को कहना ही पडा कि हमारी योजनाओं का केवल १०% ही आम आदमी तक पहुँच पाता है। फिर यह बाकी का ९०% सरकारी धन कहाँ गया इस पर राजीव भी छुपी साध गए । अंदर से वह भी जानते थे कि यह धन उनके ही क्वात्रोचिओं ने स्विस बैंकों में पहुंचा दिया है।
देश के सबसे बड़े चोरों का आज ७०,००० करोड़ विदेशी बैंकों में जमा है।और गरीब देश कि ७८% असहाय जनता २० रुपये प्रति दिन पर गुज़र बसर करने को मजबूर है। गरीब के लिए दाल-सब्जी कि कटोरी १०/- और रोटी २/- दूसरी ओर सांसदों के लिए संसद कि कैंटीन में दाल-सब्जी की कटोरी ५/- और रोटी ५० पैसे में।
देश पर अरबों रुपये का विदेशी कर्जा है। और हम कामन वेल्थ खेलों की तयारी में मस्त हैं, १.६ बिल्लियन यू एस डालर तो खर्च हो चुके कलमाड़ी जी अभी और मांग रहे है। कलमाड़ी जी के खेल गाँव के निर्माण में लगे १५०००० मजदूर कहर की ठण्ड में यमुना किनारे ठिठुर रहे है और इनमें १५००० महिलायें भी हैं । इन्हें एक इंसान के लिए अपेक्षित मूल भूत सुविधा के नाम पर पीने का पानी और दीर्घशंका के लिए स्थान भी उपलब्ध नहीं। दिल्ली हाई कोर्ट की लताड़ के बाद डी एम् सी ने इनके लिए कुछ तम्बू गाड़े है। इन्हीं तम्बू ओं में चोकी लामा जैसे मजदूर और अलोक व् सदाम जैसे यतीम बच्चे फटे हाल कम्बलों में एक दूजे की साँसों की गर्मी के सहारे ,चंद दिनों के लिए ही सही अपने भाग्य पर इतरा रहे हैं है।