बुधवार, 23 मार्च 2011

vसेकुलर सरकार की हज सब्सिडी

सेकुलर सरकार की हज सब्सिडी
       एल.आर .गाँधी

कुरआन ए पाक में सच्चे  मुसलमान के लिए  हज यात्रा का विशेष महत्तव वर्णित है. हज यात्रा केवल अपनी कमाई में से या फिर निकट सम्बन्धी से प्राप्त धन राशी  से ही हलाल मानी जाती है. इसी लिए किसी भी मुस्लिम देश में हज यात्रियों के लिए सरकारी सब्सिडी नहीं दी जाती क्योंकि यह शरियत की हिदायतों के खिलाफ है. बहुत से इस्लामिक विद्वान सरकारी सब्सिडी पर हज यात्रा को 'हराम' मानते हैं . फिर भी हमारे सेकुलर हुक्मरान १८० मिलियन मुस्लिम बिरादरी को खुश करने के लिए हज यात्रा के लिए सब्सिडी निरंतर बढाते चले जा रहे हैं . इस वर्ष केंद्र ने हज सब्सिडी के लिए फिर से ८०० करोड़ की भारी भरकम राशि मंजूर की है. १९९४ में यह राशी १०.५७ करोड़ रूपए थी जो २००८ आते आते ८२६ करोड़ हो गई.
प्रति हज यात्री खर्च भी १२०० रूपए से , २००९ आते आते बढ़ कर ५१,६१० रूपए हो गया. हर वर्ष लगभग १.६४ लाख मुसलमान हज यात्रा को जाते हैं जिनमें से १.१५ लाख सरकारी सब्सिडी पर यात्रा करते हैं जिनका चयन हज कमेटी कुर्रह -अर्थात लाटरी से करती है. २००२ में हज कमेटी ने ७०,२९८ यात्री भेजे थे और २००८ आते आते यह संख्या १२,६९५ हो गई.
ऐसे ही केरल और आंध्र प्रदेश में ईसाई यात्रिओं को भी सरकारी सब्सिडी दी जाती है. हमारे सेकुलर हुक्मरानों को शायद खुद को सेकुलर दिखाने के लिए या फिर अल्पसंख्यक वोट बैंक को मजबूत करने के लिए 'भारतीय जनता के खून पसीने की कमाई के 'कर' को लुटाने में मज़ा आता है.
सेकुलर छवि बनाए रखने के लिए यह भी जरूरी है कि यह सुविधा बहुसंख्यक 'हिन्दुओं' को हरगिज़ न दी जाए. हर साल ९६० हिन्दू यात्री पवित्र मानसरोवर यात्रा को जाते हैं. इस यात्रा के लिए उन्हें कुमाऊ मंडल विकास निगम को २४,५०० रूपए अदा करने पड़ते हैं जिसमें ५०००/- सिक्योर्टी जो वापिस नहीं होती, भी शामिल है.इसके अतिरिक्त २१५०/- और ७०० डालर (३१५००/-)  अलग से देने होते हैं जो चीन सरकार को जाते हैं.यात्रा पर होने वाले अन्य खर्चे अलग से. इस प्रकार प्रतीयेक हिन्दू यात्री को ५८.१५०/- तो यात्रा शुल्क और कर के रूप में ही सरकार को देने होते हैं. इस प्रकार हर वर्ष कैलाश मानसरोवर  यात्रा पर हिन्दू यात्री अपनी सेब से ५.५६२४ करोड़ रूपए खर्च  करते हैं और हमारी सेकुलर सरकार अपने हिन्दू यात्रियों  
को  १% भी सरकारी सब्सिडी देना मुनासिफ नहीं समझती.
आज़ादी के ६४ बरस बाद भी हम अपनी जनता को स्वच्छ पीने का पानी तक मुहैय्या नहीं कर पाए . हर १५ सैकंड के बाद एक बच्चा जल जनित रोग से मर जाता है. हमारे बंगाली बाबू ने  इस साल नदियों के जल को साफ़ करने के लिए, महज़ २०० करोड़ रूपए अपने बज़ट में अलग से रख छोड़े हैं. वोट बैंक सब्सिडी का चौथा हिस्सा ! ठीक ही है भई बच्चे कब वोट डालते हैं. फिर  पांच राज्यों में अपने वोट बैन को भी तो संभालना है.
निरंतर अल्पसंख्यक तुष्टिकरं और आसमान छूती हज सब्सिडी को देखते हुए एक प्रशन हर भारतीय के मन में अपने आप 'विकिलीक के खुलासों की माफिक उजागर हो उठता है. क्या गाँधी नेहरु का भारत आज भी मुग़ल कालीन 'इस्लामिक राज्य ' तो नहीं ?
    
 

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

अमेरिकी - दियत ... पाक की नियत.


अमेरिकी - दियत ... पाक की नियत...
           एल.आर.गान्धी 
अमेरिकी नागरिक की रिहाई को लेकर अमेरिका और पाक में चल रहे शीत युद्ध का ' इस्लामिक न्याय ' के अनुसार आखिर हल निकाल ही लिया गया. रेमंड डेविस ने जनवरी माह में दो सशत्र पाक नागरिकों को अपनी गोली का निशाना बनाया और पाकिस्तानियों की हत्या को लेकर पाक अवाम में जहाँ एक ओर भारी रोष था तो दूसरी ओर कट्टरपंथी मुल्लाओं के दवाब में सरकार और न्यायालय भी दुविधा   में थे. अमेरिका ने पाक का दाना पानी बंद करने की भी चेतावनी दे डाली पर अदालत ने रेमंड को कोई रियायत नहीं दी और अमेरिकी कातिल लाहोर की कोट लखपत जेल में डाल दिया गया. रेमंड को राजनयिक संरक्षण न दे पाने के 'जुर्म' में विदेश मंत्री को भी अपना पद  गंवाना पड़ा . पाक सरकार की हालत 'सांप के मुंह में कोहड किरली ' जैसी हो गई - न तो अमेरिका को नाराज करने की जुर्रत और न आवाम को खफा करने का दम !!! करे तो क्या करे ?
आखिर सरकार में बैठे अमेरिका परस्त चंद मज़हबी जानकारों ने कुछ ऐसा हल खोज ही लिया कि सांप भी मर जाए और लाठी भी रहे सलामत !
निर्धारित योजना के तहत ५ मार्च को २ अमेरिकी विशेषज्ञ पाक आए और इस्लाम की शरियत कानून के अंतर्गत मरने वालों के परिवारों को 'दियत' की भारी भरकम राशी दे कर अदालत के बाहर ही समझौते  पर दस्तखत करवा कर रेमंड को छुड़ा लिया. आवाम और इस्लाम के ठेकेदार मुल्ला देखते ही रह गए. मृतकों के परिवार वालों को जब ७ लाख डालर बोले तो ३.५ करोड़ रूपए दिखाए गए और वह भी मज़हबी क़ानून में मान्य दियत के हवाले से तो उनके होश फाख्ता  हो गए - अरे इतना देना था तो २ क्यों मारे चार मार देते ? फिरंगियों की फराख दिली तो देखो - परिवार के सभी दस सदस्यों को अमेरिका में रिहायश और नागरिकता की पेशकश. पाक सरकार ने भी सुख की सांस ली. ले भी क्यों न जो सरकार एक निवाले के बाद दूसरे के लिए अमेरिका का मूंह ताकती हो ,उसके पास और चारा भी क्या था. वैसे भी पाक में कत्ल के ६०% मामलों में शरिया के कानून 'दियत'के तहत मृतक के परिजनों को कुछ ले-दे कर मामला  निपटा लिया जाता है.शरियत के इस कानून का पैसे वाले और रसूक दार लोग खूब फायदा लेते हैं. पिनल कोड और शरियत कानून पाक में साथ् साथ् चलते हैं -रसुक दार लोग अपनी सुविधा के अनुसार चुन लेते हैं.   
अब शरियत के जानकार मुल्ला-मौलवी कितना ही शोर डालें की भई 'शरियत में दियत पर तो सिर्फ मुसलिमों का अधिकार है' दिम्मिओं का हरगिज़ नहीं . शरियत में दियत कानून के अनुसार एक मुस्लिम से यदि किसी शख्स का क़त्ल हो जाए तो अदालत से बाहर मृतक  के परिजनों को 'दियत ' मुआवज़े की राशी दे कर समझौता किया जा सकता है. शरियत के क़ानून में तो 'इंसान की कीमत' भी निश्चित कर दी गई है. जिन मुस्लिम देशों में इस्लाम का राज है और शरियत का क़ानून - वहां क़त्ल के बाद ले - दे कर मामले को रफा दफा कर लिया जाता है. विश्व के सबसे बड़े इस्लामिक निजाम सउदी अरब में तो 'दियत ' की बाकायदा रकम निर्धारित है.  मृतक यदि मुस्लिम है तो दियत राशी एक लाख रियात और यदि मुस्लिम महिला है तो इस से आधी. यहूदी मृतक मर्द के परिवार को ५० हजार रियात और यहूदी महिला को आधी . इस्लाम की नज़र में 'हिन्दू' अव्वल दर्जे के काफ़िर हैं. तभी तो एक हिन्दू मर्द मृतक के परिजनों को ६६६६ रियात की 'दियत' निश्चित की गई है और हिन्दू औरत को तो इससे भी आधी अर्थात ३३३३ रियात... साउदी अरब में काम कर रहे लाखों हिन्दु कफ़िरों के मनावाधिकारों का तो अल्लाह ही रखवाला है ...........मोहब माने जाने वाले 'बहाई' समुदाए को दियत का हक भी नहीं प्राप्त - बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाए द्वारा इन्हें जी भर कर सताया जाता है. शायद अल्लाह  का यहि हुक्म है. 
अब यदि अमेरिका ने इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान में 'कुरआन ए पाक ' के शरिया क़ानून के अन्तर्गत एक मोटी रकम दे कर एक 'दिम्मी' काफिर को रिहा कारवा लिया तो क्या आफत आ गइ. फिर पाक वैसे भी तो अमेरिका के टुकड़ों पर ही पल रहा है. इसके साथ ही अब यदि अमेरिका में किसी सिर फिरे ने रेमंड डेविस को आधार बना कर 'कत्ल' के बाद 'दियत' अदा कर मृतक के परिजनों से कोर्ट के बाहर ही मामला निपटा लिया तो 'विश्व बास ' क्या करेगा ?
तुलसी जी ने ठीक ही तो कहाँ है ' सामर्थ को नहीं दोष गुसईं '.......       

सोमवार, 14 मार्च 2011

भरोसे की सुनामी

भरोसे  की  सुनामी 
  एल.आर.गाँधी
जापान की सुनामी में  भारी जान माल का नुक्सान हुआ और जापानी उससे उबर भी जाएंगे क्योंकि उनमें ऐसी  आपदाओं से उबरने की इच्छाशक्ति है. हिरोशिमा पर बम से हुई तबाही से यह देश और भी सशक्त हो कर एक विशव शक्ति के रूप में खड़ा हो गया. मगर सुनामी से हुए निउक्लियर प्लांट्स में  रिसाव और धमाकों से विश्व भर में परमाणु संयंत्रों से संभावित खतरे की घंटी बज गई है. इस से पूर्व भी परमाणु रिसाव १९७९ में अमेरिका के थ्री आईलैंड में, १९८६ में  सोवियत संघ (युक्रेन) के  चेंरेविल में हो चुके हैं जिनमें भारी जान माल का नुक्सान देखने को मिला था. जर्मन में तो परमाणु संयंत्र बंद करने की मांग जोर  पकड़ने लगी है. 
हमारे वैज्ञानिक  अपने परमाणु संयंत्रों के जापान से भी अधिक सुरक्षित होने के दावे तो कर रहे हैं मगर देशवासियों को विशवास नहीं हो रहा ! हो भी कैसे ! कहते हैं दूध का जला छाछ को भी फूंक  फूंक   कर पीता
है- हम तो वो है जो दूध से जले नहीं अपनों द्वारा ही जलाए गए हैं. भोपाल गैस त्रासदी को कौन भूल सकता है ?
कैसे गैस पीड़ित पिछले २५ बरस से ज़हरीली  गैस के साथ साथ -प्रशासन की उपेक्षा का संत्रास भोग रहे हैं. किस प्रकार हमारे ही रहनुमाओं ने दोषियों को बचाया भी और भगाया भी . फिर इन्ही सत्ता के दलालों पर जनता विश्वास करे तो कैसे ? 
जिस परमाणु बिजली समझौते के बल पर हमारे 'सिंह साहेब' पुन : सत्ता पर काबिज हो गए और लोगों ने देश में बिजली से प्रगति को वोट दिया .  वही 'सिंह साहेब' आज भरोसे की सुनामी में गोते खा रहे हैं . जो शख्स अपनी नाक के नीचे हो रहे गोल माल को नहीं रोक पाया - भला वह परमाणु संयंत्रों पर नियंत्रण का भरोसा जनता को क्या ख़ाक दे पाएगा. एक मजबूर प्रधानमंत्री से भला देश की जनता अपनी जान ओ माल की सुरक्षा की उम्मीद कर भी कैसे सकती है. 
सुनामी तो जापान में आई है और उसका दूरगामी असर भारत की परमाणु विद्युतीकरण पर पड़ने वाला है ! 
 


शुक्रवार, 11 मार्च 2011

जीने वालों को मरने की आसानी दो मौला


जीने वालों को मरने की आसानी दो मौला !
          
                एल. आर. गाँधी  


अरुणा ! - अरुणा रामचंद्र शानबाग ... गत ३७ बरस से हस्पताल की मृत्यु शैया पर अपनी ही सहकर्मियों की करुणा का संताप भोग रही है. उसे इच्छा मृत्यु का अधिकार नहीं ... और हमारे देश के  कर्णधार नेताओं के पास  तिल तिल मर रहे मानव के लिए कोई ऐसा क़ानून बनने का वक्त ही कहाँ है. रही बात न्यायालय की वह तो कानून के अमल पर ही अपनी राय दे सकता है.. कानून नहीं घड सकता. सर्वोच्च न्यायालय ने भी अरुणा पर करुणा कर उसे ३७ वर्ष के संत्रास से मुक्त करने में असमर्थता व्यक्त कर दी. हमारे अधिकाँश कानून अंग्रेजों की देन हैं और मेडिकल बिरादरी भी 'ईसाई' धर्म ' से प्रेरित सौगंध से बंधी  है, ईश्वर द्वारा दिए जीवन को छीनने का अधिकार सिर्फ  और सिर्फ 'गाड' को ही है. हमारे संविधान में हमें जीने का अधिकार तो दिया गया है - मगर किस हाल में ? ' अल्लाह ' जाने ! अब अरुणा का जीना यदि जीना है तो 'तिल-तिल मरना किसे कहते हैं.?
क्या अरुणा ३७ बरस ऐसे जी पाती यदि किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल और उसके सहकर्मी उसकी इस कदर देख भाल न करते. अस्पताल और अरुणा की सहकर्मियों को बेशक इसका श्रेय जाता है की इतने लम्बे समय तक बिस्तर पर पड़े रहने पर भी अरुणा को एक भी बेड सोल नहीं हुआ. 
देश में लाखों मरीज़ और वृद्ध लोग अरुणा से भी कई गुना अधिक असह्य पीड़ा और संत्रास में जीने को विवश हैं. मगर सभी अरुणा जैसे भाग्यशाली- अभागे नहीं हैं. वृधावस्था अपने आप में ही जीवन का बहुत कठिन पड़ाव है जब मानव को बहुत से रोगों   और शारीरिक व् मानसिक कष्टों से दो चार होना पड़ता है . निकट भविष्य में हमारा देश विश्व के सर्वाधिक वृधो की शरण स्थली होने जा रहा है ,जिन्हें देखभाल के लिए असंख्य किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पतालों और अरुणा के सहकर्मियों जैसी देखभाल करने वाली नर्सिज़ की  जरुरत पड़ेगी. मगर हमारे सरकारी अस्पतालों से ऐसी देख भाल की आस लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. यहाँ यदि अरुणा होती तो उसके लिए किसी वीरानी को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने की नौबत ही न आती- बिन मांगे ही अरुणा को सरकारी डाक्टर और नर्सें अपने 'कुशल' उपचार से मुक्ति प्रदान कर देते. 
सो रही सरकार और कानूनी नूरा कुश्ती में उलझे हमारे माननीय न्यायाधीश अरुणा के संत्रास को क्या जाने.... इसके लिए तो कोई 'बापू ' हृदय महात्मा गाँधी चाहिए.. जो मानव तो क्या एक पशु की पीड़ा से भी अभिभूत हो जाते थे. गाँधी जी के साबरमती आश्रम में उनकी एक गायें का बछड़ा बीमार था और असहनीय दर्द से छटपटा रहा था. गाँधी जी ने जब बछड़े को तडपते देखा तो फ़ौरन ढोर डाक्टर को बुलाया और आदेश दिया कि या तो इसे ठीक करो या फिर इंजेक्शन लगा कर सहज मृत्यु दे दो. अहिंसा के पुजारी से भी एक बेजुबान प्राणी का दर्द सहन नहीं हुआ और दर्द से मुक्ति के लिए 'हिंसा' अर्थात दया मृत्य का विकल्प चुना. 
इसे  मेनका गाँधी जी की  बेजुबान जीवों के प्रति प्रेम की पराकाष्ठ ही कहेंगे कि दया - मृत्यु का जो अधिकार देश में मनुष्य को नहीं प्राप्त वह उन्होंने 'रेबीज़ 'ग्रस्त कुत्तों को दिला दिया.जानवरों के प्रति क्रूरता रोकने के अपने क़ानून में उन्होंने 'रेबीज़' ग्रस्त कुत्ते के लिए सहज मृत्यु का प्रावधान दर्ज किया. 
जब हमारे संविधान में सन्मान पूर्वक जीने का अधिकार है तो गरिमा से मृत्यु लोक की प्राप्ति का क्यूँ नहीं हो सकता. वैदिक काल से हमारे समाज में चतुर्थ अवस्था में वैराग्य आश्रम का प्रावधान है. जब मानव अपने सभी कर्मों से निर्मुक्त हो कर वनों में ऋषि मुनियों से सहज मृत्यु को प्राप्त करने के योगिक-अध्यात्मिक प्राणयाम की शिक्षा ग्रहण कर अपनी इच्छा से अपने जर्जर शरीर से मुक्त हो कर नया शारीर धारण कर लेता ... हमारे पूर्वज तो इस जन्म मरण के गोरख धंधे से निर्मुक्त होने के लिए सारा जीवन 'मुक्ति' की कामना में लगा देते. मुक्ति पर हमारा जन्म सिद्ध अधिकार माना जाता था. तभी तो भीषम पितामह जिन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था - मुक्ति की आकांक्षा हेतु  उतरायण की प्रतीक्षा  में वान शया पर पड़े रहे. महाभारत युद्ध के बाद जब धर्म राज युधिष्ठर वनों में ढूंढते ढूंढते अपने काका श्री विदुर से मिले तो विदुरजी ने एक वाट वृक्ष के नीचे योग मुद्रा में खड़े हो कर अपने प्राण त्याग दिया - युधिष्टर को यका यक महसूस हुआ कि उसके शरीर में एक दैवी शक्ति आ गई है...विदुर जी भी युधिष्टर की भांति  धरमराज का अवतार थे और अपनी ईच्छा से देह त्याग कर अपने मूल अंश में वलीन हो गए.       
काश हमने  अपनी सहज -ईच्छा मृत्यु के  यौगिक ज्ञान  को न बिसराया होता ,  तो आज अपने अंतिम दिनों के संत्रास पर सहज ही विजय पा कर असंख्य कष्टों से मुक्ति पा कर जीवन को एक उत्सव और मृत्यु को महोत्सव के रूप में अंगीकार करने में सक्षम होते. मृत्यु महज़ पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र ग्रंहन करने की ही मात्र एक सहज क्रिया है भगवान श्री कृषण का गीता में मानव को दिया सन्देश भी यही है . 
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दो मौला. 
जीने वालों को मरने की आसानी दो मौला.

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

पाक ध्वज में काल कल्वित- सफ़ेद रंग

पाक ध्वज में काल कल्वित- सफ़ेद रंग 
   एल. आर. गाँधी 

पाक  के  इकलौते अल्पसंख्यकों के मंत्री शाहबाज़ भट्टी की दिन दिहाड़े हत्या कर पाक के कट्टरवादी मुसलामानों ने सारे विश्व को एक स्पष्ट सन्देश दे दिया है. यह सन्देश है की पाक में कुरआन और मुहम्मद को न मानाने वालों के लिए कोई स्थान नहीं. भट्टी पाक के एक मात्र ईसाई मंत्री थे. भट्टी  ईशनिंदा क़ानून के मुखालिफ थे जिसे पाक में अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने में प्रयुक्त किया जाता रहा है. इसे कुफ्र क़ानून से भी जाना जाता है. पाक में इस्लाम के पैरोकार कुफ्र और काफ़िर को मिटाने वाले को गाजी कह कर सम्मानित करते  है. पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या करने वाले बाड़ी  गार्ड को भी गाजी के रूप में सम्मानित किया गया.    
एक और तो पाक के प्रधान मंत्री युसूफ रज़ा गिलानी अल्पसंख्यकों की सलामती के बड़े बड़े दावे करते हुए फरमा  रहे हैं कि पाक के राष्ट्र ध्वज का सफ़ेद हिस्सा अल्पसंख्यकों का प्रतीक है. दूसरी ओर आंतरिक  सुरक्षा मंत्री रहमान मालिक साफ़ साफ़ शब्दों में आगाह कर  रहे हैं कि 'हमारे मुल्क में सिविल वार से खून खराबा होना तय है. पिछले दिनों पाक के ६६ वर्षीय हिन्दू विधायक ने पाक से भाग कर भारत में शरण ली. पाक में कुफ्र के नाम पर बढ़ रही अल्पसंख्यकों की कठिनाईयों  पर ईसाई सांसद अकरम मसीह गिल ने कहा कि सबसे कठिन दौर में हैं अल्पसंख्यक- उन्हें अंधी गली में धकेला जा रहा है. प्रसिद्ध लेखिला तसलीमा नसरीन ने तो यहाँ तक कह दिया कि सभी अल्पसंख्यकों को पाक छोड़ देना चाहिए. 
ईशनिंदा या कुफ्र के क़ानून के तहत जन . जिया उल हक़ के समय से अब तक ६०० काफिरों पर केस दर्ज हुए - कुछ को तो जेल में ही मौत के घाट उतार दिया गया. पाक में आम हिन्दू या ईसाई की तो बात छोडो शाहबाज़  भट्टी  और अकरम मसीह गिल जैसे मंत्री व् सांसद भी पाक के मुस्लिम समाज में अपने ईसाई नाम के साथ नहीं रह सकते उन्हें भी मुस्लिम नाम रखने पड़ते हैं.      
गत छह दशकों में पाक में इस्लाम और मुहम्मद के नाम पर अल्पसंख्यकों पर इस कदर जुल्मोसितम ढाए गए की लगभग ३५ मिलियन अल्पसंख्यक यातो मार दिए गए या फिर अपनी जान बचाने के लिए मुसलमान हो गए और बहुत सारे पाक छोड़ भाग गए. आंकड़े गवाह हैं - १९४७ में जब जिन्ना ने सेकुलर इस्लामिक राज्य की स्थापना की और अल्पसंख्यकों के जान ओ माल और धर्म की पूरी हिफाज़त का वायदा किया तो उस वक्त पाक में २४% अल्पसंख्यक थे और कुल आबादी थी ३० मिलियन . २०१० आते आते आबादी तो हो गई १७० 
मिलियन  अर्थात ५ गुना से अधिक और अल्प संख्यक रह गए मात्र   ३% जिसमें १.५% हिन्दू और १.५% ईसाई हैं और यह संख्या भी तेज़ी से घट रही है. 
मानवाधिकार के ठेकेदार और भारत के सेकुलर शैतान 'हिन्दुओं   और ईसाइओ   '  पर पाक में हो रहे अमानवीय  अत्याचारों  पर अपराधिक  चुप्पी  साधे  हुए हैं . और तो और पाक में ईश  निंदा  के नाम पर हो रही राजनैतिक हत्याओं  पर भारत के किसी  भी कांग्रेसी  या कौम्नष्ट  ने एक शब्द  नहीं बोला  ..... पांच  राज्यों  में होने जा रहे चुनावों में कहीं मुस्लिम वोट बैंक  न फिसल जाएं !!!!!!!  


गुरुवार, 3 मार्च 2011

गांधीजी के आदर्श........चांटे...

गांधीजी के आदर्श........चांटे... 
          
        एल. आर. गाँधी.


थप्पड़  -चांटा- झापड़ या फिर मलेच्छ भाषा में बोले तो slap ! हमारे सफेदपोश गाँधीवादी रहनुमाओं ने यूँ तो गांधीजी के सभी आदर्शों को ताक़ पर रख छोड़ा है ,मगर एक आदर्श इन्हें खूब याद है - वह है 'यदि कोई आपके गाल पर एक थप्पड़ मारे तो दूसरा  गाल आगे  कर  दो' ताकि मारने वाले के दिल में कोई हसरत न रह जाए ! मगर गांधीजी ने 'तीसरे' थप्पड़ पर मौनव्रत धार लिया और हमारे सेकुलर हुक्मरान इन दिनों 'भारी दुविधा' में हैं .यह दुविधा न तो तीसरे थप्पड़ की है और न ही उस थप्पड़' की जिस के बारे में गांधीजी ने 'आदर्श' स्थापित किया था.
यह तो बहुत ही विचित्र 'चांटा' है ,जिसे हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने 'केंद्र सरकार' के बेशरम गालों पर बड़े आक्रोश से जड़ दिया है . आज तो हद ही हो गई एक ही दिन में दो चांटे और वह भी बड़ी शिद्दत से !
पहला चांटा था सर्वोच्च न्यायालय द्वारा  C.V.C. P.J.Thomas की  नियुक्ति  को  निरस्त करना. मनमोहन सरकार अभी तक थोमस की नियुक्ति को जायज़ सिद्ध करने के जुगाड़ में थी. मगर थोमस द्वारा यह कहना की जब लोक सभा दागी  सांसदों से भरी पड़ी है तो  वे इस्तीफा क्यों दे - एक अधिकारी जिस पर देश में हो रहे घोटालों की जांच पड़ताल का दायित्व हो वही ऐसा  'बेहया' तर्क दे- न्यायालय को नागवार गुज़रा !
अभी हमारे 'चोरों के सरदार- मगर फिर भी इमानदार !' पहले चांटे को सहला ही रहे थे की सर्वोच्च न्यायालय ने दूसरा झापड़ रसीद कर दिया ! यह था तीन एन्फोर्समेंट डरेक्टोरेट अधिकारिओं का स्थानान्तरण रद्द करना . इन्हें हसन अली के स्विस बैंकों में जमां काले धन की जांच पर लगाया गया था , मगर बीच में ही हटा दिया गया. न्यायपालिका ने  केंद्र सरकार के इस कदम का सख्त नोटिस लिया और केंद्र से पूछा की 'कौन है यह हसन अली' जिसने देश के अरबों रूपए स्विस बैंकों में छुपा रखे हैं और जिस पर ५०,००० करोड़ का आय कर बकाया है ? फिर भी केंद्र सरकार कोई कार्यवाही  नहीं कर रही ?
वैसे तो आज कल सेकुलर गालों पर निरंतर चांटों की बरसात  हो ही  रही है . अब गिनती कौन करे ! हमारे गाँधी वादी -हिन्दू विरोधी- अल्पसंख्यक - सखा सेकुलर शैतान पिछले ९ साल से देश वासियों को समझाते आ रहे हैं की गोधरा काण्ड ' हिंदूवादी' संगठनों का किया धरा था - बेचारे मुसलमान तो यूँ ही मारे गए- ट्रेन में आग अपने आप लगी और बेचारे  मुसलमानों को यूँ ही बदनाम किया जा रहा है. लालू जी ने कमीशन बिठा कर भी 'सिद्ध' कर दिया की कार सेवक अपनी आग में ही जल मरे ! अब नयायालय ने अपने ही  ३१ मुस्लिम आतंकियों को बोगी में आग लगाने और ५६  कार सेवकों को  जिन्दा जलाने के जुर्म में सजा सुनाई तो हमारे 'भगवा आतंक' के भोंपू पल्निअप्प्म चिदम्बरम जी की धोती ढीली हुई जा रहे है. गोधरा फैसले पर कोई प्रतिक्रिया भी देते नहीं बन रही. 
२ जी स्पेक्ट्रम में भी जब कोर्ट का slap आया तो राजा को गद्दी से रुखसत किया हमारे सिंह साहेब ने . अब S - Band घोटाले में शायद  सर्वोच्च न्यायालय के झापड़ का इंतज़ार है. 
पंजाबी की एक कहावत है ' दो पईयाँ बिस्सर गईयाँ - सदके मेरी गल्लां दे !!!!!!