गुरुवार, 10 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 



अष्टावक्र  कहते  हैं कि मोक्ष कोई वस्तु नहीं  जिसे प्राप्त किया जाए ,  न कोई स्थान है  जहाँ पहुंचा जाए , न कोई   भोग है जिसे भोगा   जा सके , न रस है , न इसकी कोई साधना है , न सिद्धि है , न ये स्वर्ग में है , न सिद्ध शीला पर।  
विषयों में विरसता ही मोक्ष है।  
विषयों में रस आता है तो संसार है ।  
जब मन विषयों से विरस   हो  जाता है तब  ' मुक्ति '  है।  संसार में रहना , खाना पीना  कर्म करना बन्ध नहीं हैं ; इनमें अनासक्त हो जाना ही मुक्ति है।  इतना ही मोक्ष विज्ञान का सार है।  
सन्यासी बनने से,  धूनी रमाने से , संसार को गालियां देने से , शरीर को सताने से , उपवास करने से , भोजन  के साथ नीम की चटनी खाने से विषयों के प्रति विरसता नहीं आ सकती।  इन सबका मोक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं है।

(अष्टावक्र गीता १५/२)