रविवार, 8 अगस्त 2010

...अब जस्टिस नाहिद आरा मूनिस

पहले शाह बानो -फिर सीरिन और अब जस्टिस नाहीद आरा मूनिस ....
दारुल-उलूम मदरसा देओ- बंद के मौलवी ने फतवा नासिर किया है कि कोई औरत मुंसिफ नहीं बन सकती। इस प्रकार अलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस नाहीद आरा मूनिस की बतौर जज नियुक्ति पर प्रशन चिन्ह लगा दिया गया है। देओबंद के मौलवी जी के अनुसार इस्लाम में किसी औरत को जज बनाया जाना कुरआन ई पाक के ऊसूलों के खिलाफ है।
अल्लाह के दूत मुहम्मद साहेब के अनुसार औरत के हकूत एक मर्द से आधे हैं (कु :२:२८२)। शरियत के क़ानून में दो औरतो की गवाही एक मरद के बराबर मानी जाती है क्योकि औरत की समझ मरद से कमतर होती है। इसी लिए औरत को माहवारी के दिनों में इबादत और व्रत की मनाही की गई है।
हमारे संविधानवेताओं ने संविधान में भारत के सभी नागरिकों के लिए एक सामान आचार संहिता लागू करने का वचन दिया था। गांधीजी का विचार था की जब तक देश का मुसलमान खुद ही अपने समाज को जागरूक कर कर समान अचार संहिता के लिए तैयार नहीं होता तब तक उन पर समान अचार संहिता लागू नहीं होनी चाहिए । गाँधी जी की इसी विचारधारा के परिणाम सवरूप आज देश की क़ानून व्यवस्था संकट में आन पड़ी है।
देश के क़ानून में औरतों के अधिकारों की रक्षा करते हुए -तलाक के बाद आदमी से गुज़ारा भत्ता लेने का अधिकार दिया गया है। एक शाह बानो को देश की सबसे बड़ी अदालत ने जब गुज़ारा भत्ता देने का फैसला सुनाया तो मौलवियों और कट्टरपंथी मुसलमानों ने इस फैसले का जम कर विरोध किया और इसे कुरान ई पाक के खिलाफ फैसला करार दिया। राजीव की कांग्रस सरकार इन कठमुल्लाओं के दवाब में आ गई और लोकसभा में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया। जाहिर है इस से जहा एक ओर मुस्लिम महिलाओं की समाजिक हालत बढ से भी बदतर हो गई वहीँ दूसरी ओर कट्टर पंथीओं के हौसले और भी बुल्लंद हो गए।
आज कट्टर पंथी देश भर में 'शरीयत ' के क़ानून लागु करवाने की फिराक में है। केरल में तो 'शरीयत अदालते भी लगने लगी है। एक प्रोफ़ेसर का हाथ इस लिए काट डाला गया की उसने मुहम्मद पर कोई सवाल पूछने की जुर्रत की थी। कलकत्ता में एक लेक्चरार पिछले ३-४ माह से अपनी क्लास में नहीं जा पा रही। उसका कसूर यह है की उसने मुस्लिम स्टुडेंट यूनियन के 'बुरका पहन कर क्लास रूम में आने ' के फतवे को मानने से इनकार कर दिया है। मजे की बात तो यह है की हमारे सेकुलर नेताओं की तो चलो मजबूरी है क्योंकि उन्हें तो बस मुस्लिम समाज की वोट से वास्ता है। मगर हमारे सेकुलर मिडिया को क्या सांप सूघ गया है जो 'मैं चुप रहूंगी ' की कसम खाए बैठे हैं.