शनिवार, 9 जनवरी 2010

नीम हकीम खतरा- ए-जान !

भारत कि प्राचीन चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद विज्ञानं लम्बे समय से मूर्छित अवस्था में किसी सुखेन वैद्य वैद्य की बाट जोह रही है. संजीवनी बूटी आज भी एक पहेली बनी हुई है. ना तो कोई सुखेन वैद्य दिखाई देता है जो संजीवनी से चिरकालीन मूर्छित इस प्राचीन विज्ञानं के उपचार का दावा करे और ना ही पवन पुत्र हनुमान, जो इसे पहाड़ सहित उठा लाएं. कभी कभी बाबा राम देव जैसा कोई मनीषी संजीवनी की पहचान का दावा तो करता है, किन्तु साथ ही अनेक विरोधी स्वर इस दावे की हवा निकलने में मुखरित हो उठते हैं.
वैद्य बंधुओं को अनेक बार यह प्रलाप करते सुना है कि फिरंगियो और उनसे पूर्व विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा इस प्राचीन विज्ञानं कि निरंतर उपेक्षा के कारन आज इसकी यह दुर्गति हुई है. पहले एक हज़ार साल तक मुगलों ने इसकी उपेक्षा कि तो फिर अंग्रेजों ने दो सौ साल केवल ऐलोपथिक चिकित्सा प्रणाली को बढ़ावा दिया. आज़ादी के बाद बहुत से दावे किये गए कि इंडिया में उपेक्षित इस पद्धति का अब भारत में प्राचीन गौरव लौट आयेगा. आज़ादी के ६३ वर्ष बीतने के बाद भी उपेक्षा कि यह मूर्छा टूटने का नाम नहीं ले रही. आयुर्वेद के उत्थान के लिए केंद्र सरकार द्वारा नित नई नई योजनाएँ बनाई और बिगाड़ी जा रही हैं करोड़ों रूपया पानी कि तरहं बहाया जा रहा है किन्तु स्थिति जस कि तस बनी हुई है.
गुरु शिष्य प्रणाली कि नीव पर उसारी गई यह प्राचीन साइंस, आज़ादी के बाद दो खेमों में बाँट गई. एक गुट तो उन वैद्य बंधुओं का है जो सिद्धा अर्थात शुद्ध आयुर्वेद में विशवास रखता है और प्राचीन रिशिओं मुनिओं के दिखाए रास्ते पर चलते हुए इसे फिर से उसी मुकाम पर स्थापित करने के लिए कटिबद्ध है. दूसरा गुट उन आयुर्वेदिक डाक्टरों का है जो माडर्न एलोपैथिक साइंस से प्रभावित है और आयुर्वेद के साथ साथ एलोपैथिक प्रक्टिस का पक्षधर है. सिद्धा और माडर्न कि खींच तान मैं आयुर्वेद आज कहीं का नहीं रहा. 'ना खुदा ही मिला, ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे.' . नित नए नए प्रयोग जारी हैं. १९७३ में सेंट्रल कौंसिल ऑफ़ इंडियन मेडिसिन ने सारे देश में आयुर्वेदिक शिक्षा को एक ही पैटर्न पर लाने का बीड़ा उठाया. देश के सभी आयुर्वेदिक कालेजों में एक सामान पाठ्यक्रम और प्रवेश योग्यता निर्धारित की गई. डिगरी कोर्स के लिए प्रवेश योग्यता इंटर संस्कृत विषय के साथ और साथ में साइंस को प्राथमिकता राखी गई. अब संस्कृत और साइंस का कोई सुमेल ही नहीं , तो कालेजों को योग्य छात्र मिलाने ही मुश्किल हो गए . धीरे धीरे संस्कृत की अनिवार्यता हटा दी गई. ८० का दशक आते आते आयुर्वेदिक कालेजों में पी एम् टी टेस्ट को प्रवेश का आधार बना दिया गया. मेडिकल और डेंटल कालेजों में दाखिले के बाद जो छात्र बच जाते उन्हें आयुर्वेदिक कालेजों में दाखिला मिल जाता है.
यहीं से आयुर्वेद का नए सिरे से अधोपतन का सूत्रपात हुआ.पी एम् टी पास अधिकाँश छात्रों का हिंदी ज्ञान नगण्य है. बहुतों ने तो मिडल स्तर की हिंदी भी नहीं पढ़ी - संस्कृत की तो बात ही छोडिये. अब आयुर्वेद का सारा पाठ्यक्रम हिंदी और संस्कृत में है. जिन विद्यार्थिओं ने कभी हिंदी-संस्कृत पढ़ी ही नहीं वे कैसे चल पाएंगे . इसकी चिंता भी किसी को नहीं क्योंकि अध्यापकों को तो केवल यु जी सी ग्रेड से मतलब है. और यह ग्रेड तब मिलेंगे जब आयुर्वेद को ऐलोपथी का समकक्ष माना जायेगा. और इसके लिए सामान प्रवेश योग्यता होना लाज़मी है. रही विद्यार्थिओं की उन्हें तो डिगरी से मतलब है. ताकि अलोपथिक प्रक्टिस कर सकें . आयुर्वेदिक पढ़ने के लिए तो उन्होंने दाखिला लिया ही नहीं. अचरज की बात तो यह है की इन विद्यार्थिओं को आयुर्वेदिक कालेजों में कोई भी अलोपथिक साइंस नहीं पढाता - बस डाक्टर बनने के लिए यह मात्र एक चोर दरवाज़ा बन कर रह गया है. 'नीम हकीम खतरा -ए- जान '.
७० के दशक में पंजाब में केवल २ ही कालेज थे जहाँ आयुर्वेदाचार्य -बी ए एम् एस की डिग्रीयां मिलती थी. आज इन कालेजों की संख्या बढ़ कर एक दर्ज़न हो गई है. जहाँ एलोपेथिक प्रक्टिस के इच्छुक छात्रों को आयुर्वेदिक डिग्रीयां प्रदान की जाती हैं
संयुक्त प्रणाली के पक्षधर आयुर्वेदिक डाक्टर अक्सर शुद्ध पद्धति के हिमायती वैद्यों पर यह दोषारोपण करते रहे हैं की वे विद्यापीठों से गुरुशिष्य प्रणाली द्वारा कुवैद्य किस्म के अयुर्वेदिस्ट पैदा कर रहे हैं अब इन कालेजों से निकले ये आयुर्वेदिक मेडिकल अफसर तो खुद को वैद्य कहलाना भी अपमान समझाते हैं. क्योंकि अलोपथिक दवाई से उपचार को ही इन्होने अपना 'पवित्र' व्यवसाय मान लिया है.