रविवार, 27 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 


मैं  कर्ता हूँ - ऐसे अहंकाररूपी विशाल काले सर्प से दंशित हुआ तू, 'मैं कर्ता नहीं हूँ' ऐसे विश्वासरूपी अमृत को पी कर सुखी हो।  
यह 'मैं' अथवा अहंकार अनंत भिखमंगा है।  इसे चाहे जितना  भी भरो यह खाली रहता है … सिकंदर जैसा विश्वविजेता भी कहता है 'मैं खाली  हाथ जा रहा हूँ।  इस दुनियां का सारा खेल अहंकार का ही है।  मनुष्य की आवश्यकताएं बहुत सिमित हैं जिन्हें आसानी से पूरा किया जा सकता  है किन्तु उसके अधिकाँश कार्य अहंकार -तृप्ति के लिए ही होते हैं।  इस अहंकार ने ही पृथ्वी को समस्त बह्मांड का केंद्र मान  , अपने को देवताओं की संतान माना ,हमारा देश महान ,हमारा धर्म महान , हमारी जाती महान, मैं महान आदि सब अहंकार की ही घोषणाएं हैं।  यह अहंकार एक रोग है जो  जीवन में सिखाया जा रहा है।  
अहंका के सिवाय जीवन में कोई बोझ नहीं , कोई तनाव नहीं है. अहंकार हमेशां चाहता ही है , देना नहीं चाहता।  देने वाला 'निरहंकारी ' हो जाता है।  जिस दिन अहंकार  गिर  गया , उस दिन यह करतापन भी गिर जाएगा व् उसी क्षण मनुष्य ईश्वर की समीपता का अनुभव करने लगेगा।  अहंकार सब कुछ कर सकता है किन्तु समर्पित नहीं हो सकता , भक्त नहीं बन सकता।  ऐसा व्यक्ति यदि कर्म योगी बन जाए तो अहंकार गिर सकता है।  
यदि अहंकार है तो नरक जाने के लिए किसी और पाप  की दरकार नहीं। अष्टावक्र केवल इस बीमारी का निदान ही नहीं करते बल्कि इलाज़ भी बताते हैं   । वह है 'मैं' से मुक्ति ! मैं करता नहीं हूँ , यह सृष्टि अपने विशिष्ट नियमों से चल यही है , परमात्मा ही एक मात्र कर्ता है।  ऐसा विश्वासपूर्वक मान लेना ही अहंकारमुक्त होने के लिए काफी है।  
वे कहते  हैं - देखो इस तरह दृष्टि मात्र्र बदलो , पूर्र्ण विश्वास  व् निष्ठापूर्वक , तो निश्चित ही परिवर्तन आ जाएगा।  बोधमात्र पर्याप्त है।  न जन्म पर तुम्हारा अधिकार है न मृत्यु पर।  बीच में व्यर्र्थ ही 'कर्ता ' बन बैठे हो।  जो भी विश्वासपूर्वक इस अम्रृत को पी जाए तो सुखी हो सकता है।