रविवार, 10 अगस्त 2014

अष्टावक्र

 अष्टावक्र

"मुक्ति  का अभिमानी मुक्त है , और बद्ध  अभिमानी बद्ध है।  किंवदन्ती सत्य है  कि जैसी मति होती है वैसी ही गति होती है।  "

अष्टावक्र कहते   हैं कि ' जैसी मति होती है वैसी ही गति होती   है '  अध्यात्म का एक  सूत्र और है    कि '  अंत मति सो गति ' यानि मृत्यु के  समय जैसी मति होती  है वैसी ही गति होती है है।  श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि "अनासक्त  पुरुष कर्म करता हुआ परम पद को प्राप्त होता है।  जानकादि ज्ञानी जन भी आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को   प्राप्त हुए। 
गीता में यह भी कहा है -- 'योग : कर्मसु कौशलम् ' … जो योग में स्थित हो  कर अर्थात स्थितप्रज्ञ हो कर कर्म करता है वह भी मुक्ति का अधिकारी है। 
कर्म बंधन नहीं है ,   उसके प्रति जो आसक्ति है , राग है वही बंधन  है। 
 
उपनिषद् कहते हैं 'मन ही बंधन  और मुक्ति का कारण है।  मन में जैसी भावना होती है वैसी ही मनुष्य की गति होती है