धरम क्षेत्र कुरुक्षेत्र की जिस कर्म भूमि से भगवान श्री कृष्ण ने अपने पंच्जय शंख से पापी और मानवता के अप्रराधिओं के विरुद्ध धर्मपरायणता का उदघोश किया था, उसी कर्म भूमि पर शंख बेचना ,रखना या शंख से पूजा करना अपराध हो गया है .विल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट १९७२ की आड़ में कुछ वन्य जीव संरक्षण के ठेकेदार इसे अपराध घोषित कर हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं. उक्त एक्ट के तैहत शंख सिपिओं के प्रचालन पर रोक लगाई गई थी. हरयाणा की एक पीपल फार एनिमल संस्था के नरेश कदयाल की पैहल पर २ शंख विक्रेताओं को वाइल्ड लाइफ विभाग द्वारा बंदी बना लिया गया.
१६२ वर्ष पूर्व भी कुरुक्षेत्र के ही एक अँगरेज़ पुलिस अधिकारी ने पिहोवा के एक पुजारी पर मंदिर में शंख बजाने के जुर्म में १०० रूपए जुर्माना किया था.जब मामला लुधिआना कोर्ट के एक अँगरेज़ जज के संज्ञान में लाया गया तो पुजारी की धार्मिक भावनाओं को देखते हुए जुरमाना खारिज कर दिया गया. उक्त एक्ट की एक अन्य धरा के जून २००१ में लागू होने पर भी श्री लंका से आए एक जहाज से ५ लाख शंख ज़ब्त कर लिए गए. क्योंकि जहाज में शंख एक्ट लागु होने से पूर्व लादे गए थे इस लिए दोषिओं को बरी कर दिया गया. देश भर में शंख, सीपिओं के व्यापार में लगभग १५ लाख लोगों की आजीविका चलती है. और केवल इंडियन ओशन से ही २५० किस्म के शंख निकाले जाते हैं.
शंखो के व्यापार पर रोक विश्व वन्य जीव संरक्षक संस्थाओं के अनुरोध पर इस लिए लगाई गई थी की योरपियन देशों में सी फ़ूड के रसिक लोगों द्वारा बहुत अधिक मात्रा में शंख सीपिओं का समुद्र मंथन होने लगा था जिस कारन इन समुद्री जीव जंतुओं के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था. जबकि भारतीओं में सी फ़ूड का प्रचालन नाम मात्र ही है. प्राचीन मान्यताओं के चलते हमारे यहाँ तो शंक का महत्व एक धार्मिक धरोहर के रूप में ही अधिक है. अनादी काल से हिन्दू समाज शंख की आराधना पूरी श्रधा और भक्ति से करता आ रहा है. शंख से धन की देवी लक्ष्मी को प्रसन्न किया जाता है. दक्षिणावर्ती पांचजन्य शंख भगवान विष्णु के कर कमलों की शोभा हैं और यह बहुत ही दुर्लभ शंख लाखों शंखों में एक ही पाया जाता है. हिन्दू समाज शंख को अपने घर , कार्य, व् पूजा स्थल पर एक शुभ्यंकर प्रतीक के रूप में सजाते हैं. सभी देवी देवताओं की आराधना के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के शंखों का चयन किया जाता है. और हमारे शास्त्रों में इस का विधि सम्मत विधान है.
महाभारत के युद्ध का उद्दघोश भगवान श्री कृषण ने अपने पांचजन्य शंख की उत्कल ध्वनि से ही किया था इसके पश्चात् युद्ध की घोषणा के रूप में महान धनुर्धर अर्जुन ने देवराज इंद्र से प्राप्त देवदत्त शंख बजाया. भीम ने विशाल पांडर नामक शंख से भयंकर गर्जना की. युधिष्टर ने विजय का प्रतीक -अन्नंत विजय शंख , नकुल ने शुभ्यंकर प्रतीक सुघोष शंख और सहदेव ने सबसे सुन्दर मणिपुष्पक शंख से युद्ध में विजयी भाव की कामना की. अन्य महाराथों ने भी अपने अपने शंख बजा कर युद्ध की घोषणा कर दी. वास्तव में शंख नाद ही युद्ध भूमि में एक योधा की पहचान था. शंख का धार्मिक महत्व महाभारत काल से भी पूर्व का है और हिन्दू समाज में इसे धरम के प्रतीक रूप में जाना जाता है.
जानवरों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध झंडाबरदार संस्थाओं के इन ठेकेदारों को शंखो और सीपिओं में पल रहे कीड़ों की तो इतनी चिंता सता रही है.क्या इन्हें मज़हब के नाम पर तडपा
तडपा कर मारे जाने वाले जानवर दिखाई नहीं देते.
विचारणीय पोस्ट लिखी है।
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