शनिवार, 19 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 


राजा जनक   ने देश के सभी बड़े बड़े विद्वानों को बुलाकर  एक सभा का आयोजन किया  … तत्त्व ज्ञान पर शास्त्रार्थ रखा गया  .... यह भी घोषणा की गई कि जो जीतेगा उसे सींगों पर सोना मढ़ी हुई सौ गाएं दी जाएंगी।  शास्त्रार्थ में बड़े बड़े विद्वानों ने भाग  लिया अष्टावक्र के  पिता भी शामिल हुए।  अष्टावक्र को मालूम हुआ कि उनके पिता एक पंडित से हार गए और बंदीगृह में डाल  दिए गए।  बारह वर्षीय अष्टावक्र सभा में पहुंचे  …उनके टेढ़े मेढ़े शरीर को देख सभा में बैठे सभी पंडित -शास्त्री हंस पड़े।  सभासदों को हँसता देख अष्टावक्र भी हंस दिए।  राजा जनक ने अष्टावक्र को हँसता देख   पूछा  …  विद्वान क्यों हंसे , यह तो मैं समझा किन्तु तुम क्यों हँसे , यह मेरी समझ में नहीं आया।  इस पर अष्टावक्र ने कहा कि मैं इस लिए हंसा कि " इन चर्मकारों की सभा में आज सत्य का निर्णय हो रहा है।  
ये चर्मकार यहाँ क्या कर रहे हैं  .... चर्मकार शब्द सुनते ही सारी  सभा में सन्नाटा छा  गया। राजा जनक ने अष्टावक्र स पूछा कि - तेरा मतलब क्या है ? अष्टावक्र ने कहा " बहुत सीधी सी बात है कि चर्मकार केवल चमड़ी का ही पारखी होता है।  इनको मेरी चमड़ी ही दिखाई देती है जिसे देख कर ये हंस पड़े , ये चमड़ी के अच्छे पारखी हैं।  अत: ये ज्ञानी नहीं हो सकते , चर्मकार ही हो सकते।  शरीर के वक्र आदिक धर्म आत्मा के कदापि नहीं हो सकते।  अष्टावक्र के इन वचनो  को सुनकर  जनक बड़े प्रभावित हुए   .... उनके चरणों में गिर पड़े  .... उनको  सिंहासन पर बिठाया  । चरणों में बैठ कर शिष्य भाव से अपनी जिज्ञासाओं का इस बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र से   समाधान कराया  .... ' जनक-अष्टावक्र -संवाद ' रूप में 'अष्टावक्र गीता' है   

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