बुधवार, 30 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 

आज सामान्य मनुष्य को भी घर  में जितनी भौतिक सुविधाएँ प्राप्त हैं उतनी पांच सौ वर्ष पूर्व किसी संपन्न व्यक्ति को भी प्राप्त नहीं थीं।  फिर भी मानव दुःखी है. जितनी सुविधाएं बढ़ी उतना ही मानव अधिक दुखी हुआ।  आज जितनी चिकित्सा सुविधाएं बढ़ी उतनी ही बीमारियां भी बढ़ गईं , जितने  न्यायालय बढे उतने ही जुर्म भी  … भौतिक ऐश्वर्य क साथ साथ मनुष्य का नैतिक पतन अधिक हुआ , जितना ज्ञान बढ़ा उतना ही अज्ञान भी बढ़ गया।  …स्वामी रामतीर्थ ने कहा है --' To seek pleasure in worldly objects in vein , the home of bliss is within you .' सांसारिक विषयों में आनंद ढूंढना व्यर्थ है  … इस आनंद का निवास तुम्हारे भीतर है। 
अष्टावक्र जनक कहते  हैं कि यह संसार सत या असत , अच्छा है या बुरा , रस्सी है या सर्प इससे कोई प्रयोजन नहीं है।  तू संसार नहीं है , न संसारी है।  तेरे लिए भय का कोई कारण नहीं है।  तू आत्मा है , जो आत्मा परमानन्द का भी आनंद है फिर तेरे में  दुःख भय आदि कैसे व्याप्त हो सकता है।  तू ज्ञानी ही नहीं है , स्वयं ज्ञान है बोध है।  इसलिए तू सुखपूर्वक विचर।  इस आत्म ज्ञान से तेरे सारे संशय , भ्रम दूर् हो जाएंगे।  

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