बुधवार, 27 जुलाई 2011

सोमालिया का समोसा - नार्वे का आंद्रेस - भारत का दिग्गी !!!!

सोमालिया का समोसा - नार्वे का आंद्रेस - भारत का दिग्गी !!!!

                                    एल.आर.गाँधी. 


विश्व    का   सभ्य   समाज एक ओर सोमालिया की भूख और बिमारियों से त्रस्त जनता की सहायता कर रहा है वहीँ दूसरी ओर सोमालिया के इस्लामिक आतंकी संगठन 'अल शबाब ' ने 'समोसे' पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. 
इन इस्लाम के पैरोकार आतंकियों का मानना है की समोसे का तिकोना आकार ईसाई धरम के प्रतीक  से मिलता जुलता है - इस्लाम में किसी दुसरे मज़हब को सहन  करना 'हराम' जो ठहरा ! 
शायद इस्लामिक अतिवादियों की फैलाई मज़हबी कटुता का ही परिणाम हमें ईसाई बहुल नार्वे में दिखाई दिया जब एक धुर दक्षिण पंथी ईसाई युवक ने सत्तारूढ़ दल के ९३ निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया.सत्ताधारी लेबर पार्टी साम्यवादियों ओर मुस्लिम अल्पसंख्यकों  के पुनर्वास की हिमायती है. दक्षिण  पंथी ईसाई इन मुसलमानों को यूरोप  के लिए बहुत बड़ा खतरा मानते हैं .नार्वे के ओटोयो द्वीप में जब यह हादसा हुआ तो मौके पर उपस्थित पुलिस अधिकारी सबसे पहला शिकार हुआ. नार्वे में दूसरे विश्व युद्ध के बाद यह पहला हादसा था जिसमें इतनी संख्या में लोग हताहत हुए. शांतिप्रिय इस द्वीप में  पुलिस वालों को हथियार नहीं दिए जाते ओर न ही कभी इसकी ज़रूरत महसूस की गई. .स्थानीय पुलिस कर्मी महज़   मूक दर्शक  बने  रहने  को मजबूर थे ! 
९/११ के आतंकी हमले के बाद यूरोप व् विश्व के ईसाई समुदाय में इस्लाम के प्रति विचार ओर व्यवहार में भारी अंतर आया है. अधिकाश युर्पीय देशों में इस्लाम की कट्टरवादी मान्यताओं को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है. बहुत से देशों में इस्लामिक प्रतीक नकाब , मीनारों ओर मदरसों पर प्रतिबन्ध लगने लगे हैं. इस्लाम को आतंक का पर्याय माना जाने लगा है. दूसरी और इस्लाम के प्रचारक मौलवी इसे अपने मज़हब की तौहीन के रूप में लेते हुए मुस्लिम समाज में ओर मज़हबी कटुता फैला रहे हैं. यहाँ तक की ९/११ के ग्राउंड जीरो पर मस्जिद उसारने पर अड़े हैं. यूरोपीय समाज इसे इस्लामिक आतंक के विजय चिन्ह के रूप में देखने लगे हैं , जिससे मुसलमान अमेरिका पर हुए आतंकी हमले को अपनी जीत के रूप में दर्ज करने पर उतारू हैं. 
बौध धर्म में दीक्षा लेने के उपरान्त सम्राट अशोक ने भी सत्य अहिंसा को अपना कर अपने राज्य को सुरक्षा विहीन कर दिया था. चारों और सुख शान्ति का साम्राज्य था .. किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था की सीमा पार से तलवार के जोर पर मज़हब फ़ैलाने मुहम्मद के सिपाही भारत को लहू लुहान कर देंगे. लाखों निहत्थे भारतीय यहाँ तक की बूढ़े, बच्चे ओर औरतें  तलवार के घाट उतार देये गए ओर जिन्हों ने इस्लाम कबूल लिया उन्हें बख्श दिया गया - 'क्योंकि अल्लाह बहुत मेहरबान है' . हजरों विशाल देवालयों को तोड़ कर मस्जिदें खड़ी की गईं- जाजिया की मार न सह पाने वाले मजलूम हिन्दू मुसलमान हो गए.  यह सिलसिला सदियों से निरंतर जारी है .... १०० मिलियन हिन्दू इस्लाम की भेंट चढ़ गए ... भारत से अलग होने के बाद पाक में हिन्दू 24%  से घटते घटते महज़ डेढ़ प्रतिशत रह गए- अर्थात पाक में ही पिछले 64 साल में 35 मिलियन हिन्दुओं को मिटा दिया या ज़बरन मुस्लमान बना दिया गया .  
अब इस्लामिक आतंक से त्रस्त यदि कोई  भारतीय राष्ट्र भक्त इन सत्य अंहिंसा के मज़हबी पोषक सेकुलर शैतानो के खिलाफ आवाज़ उठाता है तो उसे भगवा आतंक जैसे नामों से अलंकृत किया जाता है. हमारे हुक्मरानों की इस्लामिक आतंक के खिलाफ लड़ाई का भी क्या खूब मंज़र है .... पाक आतंकी कसाब अपने ९ जेहादी हमलावरों के साथ जब देश की व्यवसायिक  राजधानी मुंबई में खून  की होली खेल रहा था तो हमारे पुलिस के आला अफसर ' दिग्गी' मियां से भगवा आतंक से उनकी जान को खतरे पर बतिया रहे थे.      
पृथ्वी राज चौहान ने गौरी को १७ बार छोड़ा ..ओर उसने पहले अवसर में ही.. नहीं बक्शा .. जो कौमें अपनी ऐतिहासिक गलतियों से नहीं सीखती ... इतिहास के गर्त में ..........???????त

3 टिप्‍पणियां:

  1. narve ke bndhu ko bht 2 sadhuvad vishv me koi to mrd hai jo islam se tkra gya

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  2. इस्लाम पूर्व का अरब संक्षिप्त स्थिति
    मक्का शहर जो एक व्यापारिक केंद्र था में एक तीर्थ स्थल था जहां विभिन्न कबीलों के लोग अपने 360 देवी-देवताओं को पूजने, कामना करने, पूरी होने पर भेंट चढ़ाने आते थे। मुख्य देव लाह तथा उनकी तीन बेटियां लत, ऊजा, मन्नत विशेष रूप से पूजे जाते थे। the यानि अल इनके नाम से पहले लगाया जाता था। वहां यहूदी व इसाई पंथों के लोग भी रहते थे जो पैगंबरों के नाम पर अपने पंथिक आचरण करते थे। उनके धर्म गुरुओं रब्बी, संत का भी उन लोगों की आर्थिक स्थिति के कारण सम्मान था। हालांकि प्रत्यक्षतः कबीले वहां प्रभावी थे लेकिन आस पास इसाई शासकों के कारण धर्मांतरित इसाईयों की स्थिति बेहतर थी। व्यापार में यहूदी पास के नगर यथरिब (जिसे बाद में मदीना नाम भी दिया गया) में बेहतर स्थिति में थे। अरब के अन्य शहरों तैफ, नखला में भी काबा थे जो तीर्थ स्थल कहे जाते थे। ऐसे क्षेत्रों में कबीलों का झगड़ा मना था क्योंकि व्यापार व तीर्थ दोनों का कार्य यहां होता था। ध्यान रहे कि काबा (मक्का) के लिए कुरान भी घर शब्द का प्रयोग करती है जो गर्भ गृह का स्मरण कराता है तथा वहां सात फेरियां व श्वेत वस्त्र पुरुषों के लिए बिना सिले धोती की तरह (एहराम) एवं सिर मुंडाकर हज आज भी किया जाता है।
    और जानकारी यहां से लें
    http://sakina.wikidot.com/arabian-deities
    http://www.bible.ca/islam/islam-myths-hajj-pagan-origin.htm
    मोहम्मद पारिवारिक स्थिति
    अरब की इस स्थिति को ध्यान में रखने के बाद मोहम्मद के परिवार की स्थिति पर ध्यान आवश्यक है। संक्षेप में कहें तो जन्म पूर्व पिता नहीं माता व पालक दादा 8 वर्ष तक फिर चाचा के साथ रहना व उनके सहयोग से बाहर जाकर व्यापार सीखना 25 वर्ष की उम्र में 2 बार इसाई पतियों से विधवा हो चुकी कम से कम 20 वर्ष बड़ी धनी विधवा से जो गर्भवती थी से विवाह और 17 वर्ष व्यापार उस धन से कर आस-पास के देशों की यात्रा व पुत्र संतान से वंचित रहना। कैसा बचपन एवं युवावस्था समझ सकते हैं। परिपक्व मोहम्मद को अपने दादा के अधिकार में रही काबा के धन तथा वहीं के ठस्के रबियों व संतों के सामने झुकते लोगों को और बातें बनाते हुए सम्मान से मिलने वाले विशाल धन-अधिकार अपने दूसरे ताऊ-चाचा के पास नहीं सुहाते थे। काबा में दादा के साथ जाने पर जो आनंद था वह बीवी के धन से किये जाने वाले व्यापार से प्राप्त धन में कहां था। पिछले 20 सालों में घूम कर धन कमाने के साथ किस्सेबाजी भी बहुत सुनी थी। सो शुरु हुआ रुहानी बातें करने का काम। इस काम में बीवी सहयोगी बनी उसके रिश्तेदार वर्का बिन नौफल जो इसाई धर्म प्रमुख रह चुके थे तथा हरकतों के कारण पदच्युत भी किए जा चुके थे गुरू-घंटाल बन गए।
    नया दीन
    पहली आयत जो कही गई उसमें अल लाह शब्द नहीं है। कारण इसाई-यहूदी प्रभाव वाला नबी बनना था। इसके बाद जो नाम चुना गया वह रहमान था। फिर रहीम के साथ जुगलबंदी की गई। काबा के मूर्तिपूजक समूह को खींचने के लिए शुरुआत अच्छी बिना हिंसा की भाषा में की गई। यहूदियों व इसाईयों के अबराहम मूसा के नाम से किस्से सुनाकर साबियन की तरह एक ईश्वर को पूजने को कहा। 10-12 साल निकल गए। घर का पैसा लगाकर खुद के परिवार के 40 सदस्य व कुछ घरेलू गुलाम यानि कुछ खास नहीं। काबा में जाकर अपनी विधियां पूजा में दिखाने पर विवाद में यह घरेलू सदस्य साथ हुए थे। सबसे बड़े सहयोगी पालनहार चाचा हर काम में साथ पर दीन इनका नहीं लिया। कुछ शरारती कुरैश यानि इनकी जाति-कबीले के युवा जरूर मौके से लोगों को अपने अक्कड़ से मारते पीटते थे लेकिन आस-पास के स्थानों से भी कोई संजीदा साथी नहीं मिला, हां झगड़े-फसाद बढ़ते गए।

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  3. मदीना में सच्चा दीन
    मदीना, जहां पारंपरिक अरब के साथ यहूदी अच्छी संख्या में थे, जाना पड़ा। यहूदियों ने थोड़ा भाव दिया तो कहा कि मक्का के व्यापारियों के कारवां को लूटेंगे तुम भी हिस्सा लेना। अधिकतर यहूदी इस काम में साथ नहीं आए पर उनके नौकर नुमा व मजदूर नुमा या बेरोजगार अरबों ने साथ दिया और यह गिरोह 130 की संख्या पर पहुंच गया। इन दिनों तक इस गिरोह-समूह द्वारा येरुशलम की तरफ मुख कर पूजा की जाती थी। तो यहां से शुरू हुआ लूट व ग़नीमत का सिलसिला और अल-लाह, रहमान, रहीम साथ हो लिए बिसमिल्लाहोरहमानेरहीम लूट के माल यानि गनीमत से इनके पास वैधता के लिए 1 हिस्सा 4 हिस्से लूटने वाले के यही नहीं यदि लड़की औरत लूटी जाए तो गुलाम लौंडियां सब खुली बिना संख्या प्रतिबंध के रखो सैक्स की पूरी छूट के साथ और यदि देह व्यापार कराओ तो भी अल-लाह माफ कर देगा रहीम जो है रहमतें वही देता है। इस बीच बूढ़ी बीवी मर गई और और बीवियों लौंडियों के रखने का सिलसिला चल निकला। यह गिरोह बढ़ता गया और फिर अरबों से यथरिब मदीना के यहूदी डरने लगे और आखिर उनका नंबर भी लगा दिया। फिर आस पास के अन्य यहूदी कबीले दीन झंडे के नीचे नहीं आने पर साफ। दूर-दूर तक यह नया दीन लेने के उत्सुक हुए 20 प्रतिशत गनीमत के साथ जन्नत और खूबसूरत हूरें का वायदा रंग लाने लगा। अब दुबारा से पूजा यहूदियों के येरुशलम की जगह पुराने काबा की तरफ होने लगी। पुरानी आयतों की जगह नई बढ़िया आयतें आई। यह भी कहा गया तलवारों के साये में जन्नत है।
    मक्का वापसी
    मक्का पहुंचने पर इस गिरोह कसे किसी ने सीधी लड़ाई नहीं की और सिर झुका दिया शर्म व कमजोरी दोनों कारणों से। इसके बाद के 6 साल मक्का में। लगभग अरब प्रायद्वीप के रेगिस्तान में नया दीन कायम और आसपास भी धमकियां व लड़ाइयां लड़कर दीन के संस्थापक 64 साल में मृत्यु को प्राप्त हुए। अरब या आसपास कोई धर्म स्थान पुस्तकालय विचारवान व्यक्ति को छोड़ा नहीं सब कुछ नष्ट कर दीन का शासन गनीमत के साथ साथ जकात जिजिया काबा में वही पुराना हर साल का हज कुरान व हदीस के किस्से लिखा सब बाद में गया है यह है दीन व दीन के पैगंबर नबी रसूल की दासतां जो कहीं इतिहास व संस्कृति छोड़ती नहीं अतः इनके मुसलमानों या मोहम्मडन्स ने जो लिखा है उसका सार है। इनके कुरैश रिश्तेदार खलीफा बनते गए हर बार एक दूसरे का मारकर सबने सच्चा दीन मुसलिम खुद को कहा साथ ही अरब साम्राज्य यूरोप में स्पेन तक, आधे अफ्रीका, मध्य एशिया, ईरान, भारत, द.पू. एशिया तक पैट्रोल निकलने से पहले तक पहुंचा चुके थे।
    नया सच्चा दीन
    पिछले 100 सालों में गैर अरब मुसलिम लोकतांत्रिक यूरोप अमेरिका कनाडा रूस में भी नौकरियों मजदूरी करने गए थे अच्छी संख्या में संतानों के साथ 20 प्रतिशत होकर सेक्युलर (गैर चर्च राज्य) के पंथ विरक्त इसाईयों पर लोकतंत्र में संख्या व गुट के खेल को फिर से खेलकर दारुल इस्लाम की तैयारियां कर रहे हैं। जहां मुसलिम बाहुल्य है और लोकतंत्र की मांग उठती है तो कट्टरवादी संगठनों के रूप में सरकार में रहने के लिए भी तैयारी रखी जा रही है। कहीं भी यह स्थिति नहीं है कि शांति हो हां पाकिस्तान हो या अफगानिस्तान सच्चा दीन तो जीतने वाले का ही होगा चाहे 100 प्रतिशत मुसलमान रहते हों। और इन देशों में दूसरे के विरुद्ध युद्ध भी होंगे आंतरिक अशांति भी होगी तेल के धनी देशों को छोड़ दें तो सर्वाधिक गरीबी भूखमरी साथ ही हिंसा व लूटपाट है पर दीन सबका पक्का है और यही आखिरी सत्य है।

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