सम्मान जनक -आराम देह मृत्यु - मौलिक अधिकार !!!
सन २०३० आते आते भारत वानप्रस्थियों की राजधानी बन जायेगा. हमारे यहाँ एक बिलियन वृष्ट नागरिक होंगे अर्थात विश्व के १/८ वृष्ट नागरिक देश के वानप्रस्थ आश्रमों की तलाश में भटक रहे होंगे. जीवन का यही एक एसा पडाव है जब ताउम्र जीने की तमन्ना करते करते एक दिन इंसान मरने का ईरादा कर बैठता है , तो बहुत बड़ी मुसीबत आन खड़ी होती है. इस मुसीबत का पूरे साहस और सलीके से सामना करने के लिए ही भारतीय समाज में अनादिकाल से मानव जीवन को चार आश्रमों में बाँट दिया गया. ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ , वानप्रस्थ और संन्यास . ५०-७४ की आयु को वानप्रस्थ जीवन मार्ग माना गया जब मनुष्य अपने समस्त गृहस्थ दायित्वों से मुक्त हो कर सांसारिक कर्मों का त्याग कर ज्ञान मार्ग पर अग्रसर होता है. जीवन के मोह छोड़ छाड़ ज्ञानी पुरुषो से मोक्ष मार्ग और सहज मृत्यु की साधना सीखता है , ताकि अंतिम समय में सब सहज सा हो जाये .
विश्व को सहज मृतु का मन्त्र देने वाले आज आधुनिकता की दौड़ में मोह माया के प्रपंच में ऐसे उलझ कर रह गए की समय ने हमें आरामदेह मृत्यु दर में विश्व के ४० वे स्थान पर ला पटका. युगांडा जैसा गरीब देश जिसकी अर्थव्यवस्था हम से ९० गुना कम है ,भी हम से एक पायदान ऊपर है. आरामदेह मृत्यु उतमता दर का आकलन एक देश के वृष्ट नागरिकों को उपलब्ध स्वस्थ सुविधाओं और अन्य जीवन सुविधाओं को आधार बना कर किया जाता है. उत्तम मृत्यु दर में ब्रिटेन १० में से ७.९ अंक पा कर पहले स्थान पर है. अमेरीका में बढ़िया स्वस्थ सुविधाओं के चलते २०५० तक वृष्ट नागरिकों की संख्या ८० मिलियन को पार कर जाएगी . अभी से वहां की सरकार अपने उम्रदराज़ नागरिकों को सम्मान जनक जीवन और आरामदेह मृत्यु की सुख सुविधाएँ जुटाने के प्रति संजीदा है. हमारे यहाँ स्वस्थ्य सेवाओं के लिए सरकार बजट में मात्र एक प्रतिशत ही जुटा पाती है, सामान्य नागरिकों के लिए ही स्वस्थ्य सुविधाएं जुटाना दूर की कौड़ी लगता है, वहां वृष्ट नागरिकों की तो बात ही छोडो. वृष्ट नागरिको को तो कई गुना अधिक स्वस्थ्य सुविधाओं की दरकार है.ऐसे में निरंतर बढ़ रही वानप्रस्थ जनसँख्या के लिए सम्मान जनक जीवन और आराम देह मृत्यु की सुविधा के बारे में तो सोचना ही बेमानी सा लगता है. क्योंकि हमारी सरकार इस समस्या के प्रति संजीदा तो क्या ,अभी गहरी नींद से ही नहीं जाग पाई.
भारत में केवल केरल ही एक मात्र राज्य है जहाँ उत्तम मृत्यु दर अन्य राज्यों से कुछ बेहतर है. आरामदेह मृत्यु सुविधा के लिए यहाँ मार्फीन के प्रयोग पर से पाबंदी हटा दी गई है. हमारे यहाँ तो अंतिम साँसे गिन रहे या गंभीर रूप से बीमार मरीज़ को डाक्टर द्वारा उसकी स्वस्थ्य स्थिति बारे उसे अँधेरे में ही रखा जाता है. केवल मरीज़ के परिज़नो के रहमोकरम पर उसे छोड़ देते हैं. जबकि पश्चिमी देशो में डाक्टर के लिए मरीज़ को उसकी यथार्थ स्वस्थ्य स्थिति से अवगत करवाना अनिवार्य होता है. विकसित देशो में तो अब 'लिविंग विल ' का भी प्रावधान है. ताकि गंभीर हालत में जब मरीज बोल पाने या कुछ बता पाने में अक्षम हो जाये तो 'लिविंग विल' में नामित व्यक्ति से डाक्टर मरीज़ के इलाज़ बारे मशविरा ले सके.
जहाँ सम्मान पूर्वक जीने का मौलिक अधिकार भी मात्र चंद सुविधा संम्पन्न नागरिकों को ही प्राप्त है, वहां जीवनके अंतिम प्रहर में प्रवेश कर चुके 'वानप्रस्थी' भारतीय सम्मान जनक -आरामदेह जीवन विसर्जन की आस किस से करें.?????
आपकी यह पोस्ट मनमोहन सिंह जी और प्रतिभा पाटिल जी पर लागू नहीं होती है ...मेरे ख्याल से हर व्यक्ति को उस वक्त मौत को गले लगा लेना चाहिए जब वह ईमानदारी,सत्य,न्याय की राह पर चलने में असमर्थ हो या सरकारी व्यवस्था द्वारा किया जा रहा हो ...क्योकि समझौता और मजबूरी में जीना ही कुव्यवस्था और कुशासन को जन्म देता है ,इसके साथ ही जिस पद पर बैठकर उस पद की मान मर्यादा के अनुसार कार्यों को ईमानदारी से अंजाम नहीं दे सकने वाली उम्र हो तो ऐसे पदों से त्याग पत्र भी दे देना चाहिए ऐसा नहीं करने से भी इंसानियत और मानवता शर्मसार होती है ..
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