लुकमान हकीम ....जिनके कमाल के फिरंगी भी कायल थे !    अगस्त १६०८ में  ब्रिटेन के किंग जेम्ज़ दी फर्स्ट का एक पत्र ले कर कैप्टन हाकिंस  जहाँगीर  के दरबार में पेश हुए. जहाँगीर अन्तःपुर में बेगम नूरजहाँ के साथ अपनी  बेटी की तिमार दारी में व्यस्त थे ,बेटी को दस्त लगे थे. वैद्य, हकीम एक से  बढ़ कर एक दवा- दारु दे कर हार गए ,दस्त थे की रुकने का नाम ही नहीं ले रहे  थे. हव्किंस को पता चला तो उन्होंने बादशाह के पास संदेसा पहुँचाया की  उनके पास इस मर्ज़ का' फिरंगी इलाज़ है' हाकिंस डाक्टर भी थे. अँगरेज़ को  अन्तःपुर में लेजाया गया और शहजादी को उनकी महज़ 'दो' गोलियों से आराम आ  गया. शहंशाह जहाँगीर बहुत खुश हुए और अँगरेज़ को मुंह माँगा इनाम देने की  पेशकश की. हाकिंस ने किंग का पत्र दिया और ईष्ट इंडिया कंपनी के लिए तिजारत  की मंज़ूरी की इल्तिजा की. जहाँगीर ने ख़ुशी ख़ुशी मंज़ूरी दे डाली. इसके  साथ ही हाकिंस बादशाह  के घनिष्ट मित्र बन गए और हम प्याला भी. अँगरेज़ की  'दो गोली' का ही कमाल था कि वे इस देश पर दो सौ साल राज़ कर गए .
अंग्रेजों के साथ ही इस देश में 'एलोपैथी' का भी आगमन हुआ . इस से पूर्व  वैद्य- हकीम या फिर ओझे -तांत्रिक जादू टोने से हम हिंदुस्तानिओं की सेहत  को दरुस्त-तंदरुस्त करते थे.वैद्य हकीम एलोपैथिक डाक्टरों की तरहां हर रोगी  के टेस्ट करवा कर रोग की जांच नहीं करते थे. वे तो नाडी परीक्षण से ही  बिमारी का पता लगा लेते थे . और उस वक्त के 'लुकमान हकीम' तो महज़ मरीज़ की  सूरत देख कर ही 'दर्द-ऐ-दिल' जान लेते !
जब एक अँगरेज़ डाक्टर को मालूम हुआ कि लुकमान हकीम केवल शक्ल देख कर ही  बिमारी का पता लगा लेते हैं तो उन्हें यकीन न हुआ. अँगरेज़ डाक्टर ने एक  व्यक्ति को एक पर्चे पर अंग्रेज़ी में कुछ लिख कर लुकमान हकीम के पास भेजा  और साथ ही हिदायत की कि रास्ते में वह जहाँ भी विश्राम करे तो किसी 'इमली'  के पेड़ के नीचे ही सोए . दो अढाई महीने के बाद जब वह व्यक्ति लुकमान हकीम  के पास पहुंचा तो उसके सारे शरीर पर 'चरम रोग के च्क्कते' पड़े हुए थे. हकीम  साहेब को उसने अँगरेज़ डाक्टर का परचा दिया और सारा सन्देश सुनाया . लुकमान  हकीम ने परचा लिया और उसके पीछे फ़ारसी में 'इलाज़ लिख दिया' और कहा कि अब  वह रास्ते में जहाँ भी आराम फरमाए तो 'नीम के पेड़ के नीचे ही सोए.  वापिस  पहुँच कर जब उस व्यक्ति ने अँगरेज़  डाक्टर  को हकीम साहेब का सन्देश दिया  और सारा विवरण बयाँ किया और बताया कि कैसे उसका चरम रोग नीम के पेड़ों के  नीचे सोने से ठीक हो गया तो अँगरेज़ डाक्टर कि हैरानी की सीमा न थी. डाक्टर  लुकमान हकीम की समझ  के कायल हो गए.
पुराने वक्तों में जहाँ अधिकाँश भारतीय आयुर्वेदिक और यूनानी  इलाज़ में  विश्वाश रखते थे आज की स्थिति बिलकुल इसके विपरीत है. डाक्टर साहेब दवाई तो  सैकड़ों की  लिखते हैं पर टेस्ट हजारों में पहुँच जाते है. मामूली से  मामूली रोग के इलाज़ के लिए भी मरीज़ को अनेकों लैब. टेस्टों से गुजरना  पड़ता है. आज दवाखानों से  अधिक तो लैबार्टरिया  खुल गई हैं. डाक्टर भाई  फीस कम लैब. कमीशन' से जियादा कमा रहे हैं. अब तो माड्रन वैद्य बंधू भी   मरीज़ की नब्ज़ टटोलने में 'लघु ग्रंथि' महसूस करते हैं और झट से लैब  टेस्टों की लम्बी फेहरिस्त मरीज़ के हाथ में थमा देते हैं. अब हमारे  देश  के स्वस्थ्य  रक्षक  जनाब गुलाम नबी आज़ाद साहेब कहते तो हैं की वे डाक्टरों  की इस मनमानी पर नकेल कसेंगे और क्लिनिकल एस्टेब्लिश्मेंट बिल( रेगुलेशन  व् रजि.)२००७ को कानूनी जामा पहना कर मरीजों के प्रति डाक्टरी पेशे को  जवाबदेह बनाएं गे . अब आज़ाद साहेब ने वादा किया है तो मान लेते हैं मगर  पिछले ६३ वर्षों का हमारा त्ज़रुबा तो यही कहता की 'गज़ब किया तेरे वादे पे  एतबार किया....
रोचक कथा माध्यम से आपने गंभीर बात कही है....
जवाब देंहटाएंएलोपैथ में सर्जरी को छोड़ ऐसी कोई दावा नहीं जिसका साइड इफेक्ट न हो...अब तो यह सिद्ध हिने लगी है और जिस प्रकार बाबा रामदेव आदि की दवाइयाँ असरकारक हो रही हैं,आशा की जा सकती है की आयुर्वेद अपनी खोयी ,कुचली प्रतिष्ठा फिर से हासिल करेगी...
very nice article
जवाब देंहटाएंजहां निजी हास्पिटल अपने यहां रेफर करने वाले को सम्पूर्ण बिल का तीस प्रतिशत तक कमीशन देते हों वहां तो गरीब मरीज का मर जाना अधिक बेहतर है... काहे के चिकित्सक हैं ये..
जवाब देंहटाएंविलकुल सही कहा आपने जी।
जवाब देंहटाएंsatya kaha aapne
जवाब देंहटाएं'गज़ब किया तेरे वादे पे एतबार किया....