अष्टावक्र
" हे विभो ! (व्यापक ) धर्म और अधर्म , सुख और दुःख मन के हैं। तेरे लिए नहीं हैं। तू न कर्त्ता है , न भोक्ता। तू तो सर्वदा मुक्त ही हैं। "
यह आत्मा चैतन्य है, मुक्त है, असीम है , सर्वत्र है , व्यापक है। यह किसी बंधन में बंधी ही नहीं है। शरीर सिमित है , मन , बुद्धि सिमित हैं। आत्मा किसी एक शरीर या मन से बंधी नहीं है। यह सारी भिन्नता शरीरगत है, मानसिक है. आत्मगत कोई भिन्नता नहीं है.
इस लिए अष्टावक्र राजा जनक को 'विभो' व्यापक शब्द से अम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तू शरीर नहीं है , व्यापक आत्मा है. इस लिए तू सर्र्वदा मुक्त ही है। यह मुक्ति तेरा स्वभाव है. इसे पाना नहीं है , यह उपलब्ध ही है ,केवल जाग कर देखना मात्र्र है। केवल ग्राहक (रिसेप्टिव ) होकर कोई ठीक से सुन मात्र्र ले तो घटना घट जाती है - उसी क्षण जन्म जन्मों की विस्मृति टूट जाएगी , स्मरण लौट आएगा। खोजने वाला भटक जाता है। खोजने पर परमात्मा नहीं मिलता। खोजों को छोड़कर संसार के प्रति उदासीन, वैराग्यवान हो कर विश्राम में स्थिर हो जाना ही पा लेने का मार्ग है।
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