शनिवार, 26 सितंबर 2009

बाल शहीद 'किरण'

वीर हकीकत राय दशमेश पिता के साहिबजादे और अनेक अनजान बालशहीदों की कुर्बानिओंकी बदौलत ही आज का हिंदू समाज कायम है - ऐसी ही एक अनजान वीर बालिका थी 'किरण' ! जिसने अपनी जान की बाज़ी लगा दी ,पर मज़हबी अत्याचार से हार नहीं मानी ।
सन १७२५ , दिल्ली के सिंहासन पर मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह का राज था । उसका एक मीर मुंशी था रामजीदास सेठ । मौलविओंके दबाव और लालच में आ कर मुंशीजी ने इस्लाम कबूल लिया और बन गए मियां अहमद अली। सेठ मियन की एक पुत्री थी -'किरण'! अपने पिता के इस धर्म परिवर्तन से उसे गैहरा आघात लगा -उसने प्रतिज्ञा की कि किसी भी कीमत पर वह अपने धरम पर अटल रहेगी ।
मौलविओं ने उसे बहुत से प्रलोभन दिए ,भय दिखाया ,पर वह नहीं मानी। किरण को बड़े काजी की अदालत में पेश किया गया। काजी ने फरमान जारी किया की जब उसके पिता ने इस्लाम कबूला था वह १३ साल की नाबालिग़ लड़की थी , इस लिए बाप के धर्म के साथ ही उसका भी धर्म बदल गया । किरण ने काजी का हुकम मानने से इनकार कर दिया। किरण को तब तक जेल भेज दिया गया जब तक किवह इस्लाम कबूल न कर ले ।
एक मासूम पर ऐसे इस्लामिक अत्याचार कि ख़बर सुन कर राजधानी में सनसनी फ़ैल गई। व्यापारिओं ने हड़ताल कर दी और लोग महल क्र सामने धरने पर बैठ गए। शहंशाह ने जनता कि बात सुनी और किरण को जेल से मुक्त कर उसे एक सेठ घनशाम दास कि पन्नाह में भेज दिया।
बड़े काजी ने इसे अपना अपमान समझा और दिल्ली के सभी मौलवियों को इक्कठा कर जुम्मे कि namaz पर बादशाह को घेर लिया। तर्क दिया कि यह एक मजहबी मामला है और इसका फ़ैसला बादशाह कि अदालत नहीं -सिर्फ़ जमा मस्जिद कि अदालत-अंजन मौलाना ही कर सकती है । किरण को फ़िर से बंदी बना कर मौलविओं कि अदालत में पेश किया गया, जहा उसे सभी प्रकार के प्रलोभन दिए गए किंतु किरण ने हिंदू धर्म छोड़ इस्लाम कबूलने से साफ़ इनकार कर दिया। मुल्लाओं ने उसे मौत कि सज़ा सुनाई जिसे किरण ने सहर्ष सवीकार लिया ।
तय तारिख को मौत कि सज़ा कि तामील के लिए जल्लाद हाथ में खंजर लिए जब किरण का सर कलम करने काल कोठरी में पहुँचा तो किरण ने ख़ुद ही दीवार से अपना सर पटक कर प्राण त्याग दिए और वीर गति को प्राप्त हो गई -किरण का साहस देख ज़ल्लाद सन्न रह गया।
किरण कि शहादत कि ख़बर दिल्ली में आग कि तरह फ़ैल गई-लोगों का एक हुज्जूम जेल के बहार इक्कठा हो गया कहते हैं !किरण कि शव यात्रा में जितना जन सैलाब था उतना दिल्ली के इतिहास में किसी ने नहीं देखा था। अत्याचारी मुग़ल साम्राज्य का यह अन्तिम काल था ।