धरती- चंद्रमा का लुका-छिपी महोत्सव
एल. आर. गाँधी
आज पूर्णिमा की रात इस शताब्दी की बहुत विचित्र रात है !
आज की रात शशि....अवनी संग लुका- छिपी का खेल खलेंगे.
लो शशि छुप गए और धरा दबे पाँव अपने प्रेमी को ढूंढ रही है. रवि चुप चाप इस खेल को निहार रहे हैं . तीनो आज रात सदियों के बाद लम्बी छुट्टी पर उत्सव मना रहे हैं . चंद्रमा अपनी प्रेमिका की व्याकुलता को निहार उसकी ही छाया में छिपा आश्चर्य चकित हो श्वेत से भगवा हुआ जा रहा है..... सूर्य देव लुका छिपी के इस खेल को देख गर्म आहें भर रहे हैं.
उत्सव का शुभारम्भ मध्य रात्रि के ११.५३ मिनट पर हुआ और सूर्य देव ने मंच सञ्चालन का जिम्मा सम्हाल लिया है. धरा ने आँख बंद कर ली और चंद्रमा धरा के ही आंचल में चुप बैठे. अनादी काल से अपने ही एक पाँव पर गोलाकार नृत्य में निमग्न धरा अपने प्रियतम दिनकर की परिक्रमा में तल्लीन है और दिनकर भी निरंतर निहारते हुए अपनी ऊर्जा की पुष्प वर्षा कर उसे अखंड सौभाग्यवती भव की मंगलआशीष से आनंदित कर रहे हैं.
ऐसे ही अनंत काल से शशि अपनी प्रियतमा धरा की परिकर्मा कर उसे लुभाने के असफल प्रयास में लगे हैं. और धरा उसे अपना हितैसी- शुभ चिन्तक मित्र मात्र मान कर संतुष्ट है. अरे भई शशि आयु और आकार में उससे कंही छोटा जो है ! कहाँ दिनकर की तन मन में आग लगा देने वाली गर्मी जो धरा के रोम रोम को रोमांचित कर दे और कहाँ शशि की बर्फानी ठंडक .... दिन भर दिनकर की तपिश के सम्भोग से धरा का अंग अंग जब थक हार कर बेसुध हो जाता है तो चंद्रमा अपनी शीतल चांदनी की चादर ओढा कर धरती को एक सचे मित्र वत - प्रेमी का आभास दिलाता है.
खगोलविद आज रात विशालकाय दूरबीनों से इस महापर्व का नज़ारा देख , श्रृष्टि के इन प्राचीनतम प्रेमियों की रासलीला से पैदा होने वाली उथलपुथल की विवेचना में लगे हैं. और हमारी ज्योतिष शास्त्री अपने परलोक की चिंता से त्रस्त अपने जातकों को चन्द्र ग्रहण के बुरे -अच्छे प्रभावों से सचेत करने में व्यस्त हैं.