अष्टावक्र
जो चैतन्य आत्मा में विश्राम कर ठहर गया वही मुक्त है। सभी कर्म शरीर व् मन के हैं। जो शरीर और मन के प्रति आसक्ति रखता है उसी के कर्म बंधन का कारन बनते हैं। आत्मा का कोई बंधन नहीं है। वह करता है ही नहीं , द्रष्टा है। द्रष्टा कभी कर्म बंधन में नहीं बंधता। जो अपने को आत्मा मानकर शरीर से अपना सम्बन्ध छोड़ देता है वह मुक्त है। यही अष्टावक्र का परम उपदेश है।
अष्टावक्र कहते हैं " तूं शरीर नहीं है , आत्मा है जो चैतन्य है , साक्षी है। आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता। यह ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र नहीं होती। यह तो चैतन्य ऊर्जा मात्र है जो समस्त प्रकार के जीवों में समान रूप से व्याप्त है।
अष्टावक्र जनक को आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराते हैं ' तू इसे जान ले और सुखी हो' . इसमें देर होती ही नहीं। यह नकद धर्म है। उधार नहीं है कि आज कर्म किया और अगले जन्म में फल मिलेगा। कुछ धर्म कहते हैं यह कलियुग है, यह पंचम काल है, इसमें मुक्ति होगी ही नहीं। कुछ कहते हैं आज से प्रयत्न करना आरम्भ करो तो सात जन्म बाद मुक्ति मिलेगी। कुछ कहते हैं अंतिम तीर्थंकर , पैगम्बर , अवतार हो चुके अब कोई होने वाला नहीं है। परन्तु अष्टावक्र बड़ी निर्भीकता से घोषणा करते हैं कि यह सब बकवास है। तू अपने को चैतन्य में स्थिर कर ले और अभी मुक्त हो जा।
ऐसी घोषणा कोई भी महापुरुष , अवतार या गुरु नहीं कर पाये । बड़ी अद्भुत घोषणा है आध्यात्म जगत की। दीपक जलते ही जैसे एक क्षण में अँधेरा गायब हो जाता है , उसी प्रकार आत्म-ज्ञान के प्रकाश में अज्ञानरूपी अन्धकार का एक क्षण में विलीन हो जाता है , सारी भ्रान्ति मिट जाती है … केवल बोध पर्याप्त है ....
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