अष्टावक्र
" मैं एक विशुद्ध बोध हूँ " ऐसी निश्चय रुपी अग्नि से गहन अज्ञान को जला कर तू शोकरहित हुआ सुखी हो !
अष्टावक्र केवल निषेध की बात नहीं करते कि अहंकार छोड़ दो तो ज्ञान होगा। केवल छोड़ना ही प्राप्त करने की आवश्यक शर्त नहीं है। निषेध वाले धर्म केवल छोड़ने की बातें करते हैं .... घर-बार सब छोड़ छाड़ कर जंगल में चले जाओ। इस छोड़ने की पलायनवादी प्रवृति ने दुनिया का घोर अहित किया है। छोड़ सब दिया किन्तु मिला कुछ भी नहीं।
अष्टावक्र विधायक हैं। वे कहते हैं - अहंकार छोड़ देने से , कर्तापन छोड़ देने से वह परम मिल ही जाय यह आवश्यक नहीं है। यह सोच लेने से कि अंधकार नहीं है , अन्धकार विलुप्त नहीं होगा। दीप जलाने से ही दूर होगा।
अष्टावक्र इसलिए विश्वास दिलाते हुए कहते हैं कि आत्म ज्ञान लिए तू यह निश्चयपूर्वक मान ले कि ' मैं विशुद्ध बोधस्वरूप आत्मा हूँ। ' तो तेरा अज्ञानरूपी अन्धकार चाहे कितना ही घना क्यों न हो एक क्षण में विलीन हो जाएगा। ज्ञान का अस्तित्व नहीं है। यह ज्ञान का अभाव मात्र है। जब तक ज्ञान नहीं है , अज्ञान रहेगा। किन्तु ज्ञान का उदय होते ही वह लुप्त हो जाएगा।
इस ज्ञान प्राप्ति के बाद ही मानव शोकरहित हो कर सुखी हो सकता है .......
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