काबुल के आतंकी हमले में नौं भारतीय शहीद हो गए। इनमें सात भारतीय सेना के अधिकारी थे जो अफगानिस्तान में भारतीय मिशन पर वहां अफगान सैनिको को सिखलाई देने गए थे।इस हमले में मेज; दीपक यादव व् लैस्रम सिंह घटना स्थल पर ही वीर गति को प्राप्त हुए, चार अन्य सेना अधिकारी जो बुरी तरहं जल गए थे को दिल्ली आर आर हस्पताल में इलाज़ के लिए लाया गया जहाँ मेज; राय कि मृत्यु हो गई और बाकी तीन की हालत गंभीर बनी हुई है।
जांच एजेंसिओं के सूत्रों के अनुसार इस हमले में आतंकी बुर्के में आये थे। तीन आतंकी बुर्के में थे और चौथा ड्राइवर के रूप में इन 'ख्वातीन ' को नूर गेस्ट हॉउस में छोड़ने आया था, जो इन्हें छोड़ कर खिसक गया।
उक्त हादसे से स्पष्ट होता है कि हमारी सरकार ने पूर्व के अनुभवों से कोई सबक नहीं सीखा। पहले राजीव गाँधी द्वारा श्री लंका में शांति स्थापना के नाम पर सैंकड़ों भारतीय सैनिकों कि बलि दे दी, अब मनमोहन सरकार अफगानिस्तान में नवनिर्माण के नाम पर अपने सैनिकों को मौत के मुंह में झोंक रही है।
इस्लामिक आतंकिओं को मजहबी संरक्षण प्राप्त है। बुरका इस्लाम का पवित्र पर्दा है। इस परदे के पीछे झाँकने कि कोशिश मात्र ही मुसलामानों में बवाल पैदा करने के लिए काफी है। अब किसी सर फिरे ने तसलीमा के नाम से एक लेख लिख दिया कि मुहम्मद साहेब बुर्के के हामी नहीं थे। तसलीमा के लाख खंडन करने पर भी बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा।
कश्मीर में तैनात भारतीय सैनिको को भी सालों से इसी बुरका आतंक से दो चार होना पड़ रहा है। आतंकी किसी भी युवक को थोड़े पैसे और ग्रेनेड थमा कर बुरका ओढा देते हैं। ऐसे अनेको 'बुर्कातंकी 'हमलों में सैंकड़ों सैनिक शहीद या हताहत हो चुके हैं किन्तु हमारी सेकुलर सरकार अल्पसंख्यकों की भावना की ठेंस को ओढ़े मूक दर्शक बनी बैठी ,देश के वीर सपूतों की चिताओं पर अपनी राजनैतिक रोटिया सेक रही है।
is desh me kisi ne itihaas se sabak liya hi nahi aur jo itihas se sabak nahi lete itihas unhe sabak lene layak nahi chhodta.
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